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इसलिए विभाव के त्याग की बात की है । वास्तव में तो लीनता करने पर विभाव उत्पन्न ही नहीं होता । "
गाथाओं, उनकी टीका और स्वामीजी के स्पष्टीकरण का सार यह है कि परमशुद्धनिश्चयनय और दृष्टि के विषयभूत ध्यान के ध्येयरूप त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में, जो कि स्वयं मैं ही हूँ, न तो नरकादि पर्यायें हैं, न मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान ही हैं, न वह बालक, जवान और वृद्ध ही होता है, न उसमें मोह-राग-द्वेष हैं और न क्रोधादि कषायें हैं।
नियमसार अनुशीलन
'शुद्धस्वभाव
में
उक्त सभी प्रकार की अवस्थाओं और भावों का यह भगवान आत्मा स्वामी और कर्ता - भोक्ता भी नहीं है । तात्पर्य यह है कि यह भगवान आत्मा अर्थात् मैं स्वयं न तो इन्हें करता हूँ, न कराता हूँ और न करनेकराने का अनुमोदक ही हूँ। इसप्रकार मैं इनसे कृत, कारित और अनुमोदना से भी अत्यन्त दूर हूँ।
प्रतिक्रमण में इसप्रकार का चिन्तन-मनन किया जाता है । इसप्रकार का चिन्तन करते हुए यह आत्मा इनसे संन्यास लेता है ।। ७७-८१ ।। इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक कलश लिखते हैं, जिसमें उक्त प्रतिक्रमण और संन्यास का फल बताया गया है । वह मूलत: इसप्रकार है( वसंततिलका )
भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्तचिन्तः स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः । मुक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
प्राप्नोति मुक्तिमचिरादिति पंचरत्नात् ।। १०९ ।। ( हरिगीत )
सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण की भावना से मुक्त हों । निज द्रव्य गुण पर्याय में जो हो गये अनुरक्त हों । छोड़कर सब विभावों को नित्य निज में ही रमें।
अति शीघ्र ही वे भव्य मुक्तीरमा की प्राप्ति करें ।। १०९ ।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६४७-६४८