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नियमसार अनुशीलन त्रिकाल होती है, उसे परमभाव कहते हैं और उसके आश्रय से धर्म प्रगट होता है।
समयसार में जिसे ज्ञायकभाव कहा है, उसे ही यहाँ परमपारिणामिक भाव कहा है। परमपारिणामिक भाव त्रिकाली स्वभाव है, ध्रुवरूप रहनेवाला भाव है, सदा एकरूप रहनेवाला भाव है।'
कर्मवृक्ष की जड़ उखाड़ना पर्याय है, लेकिन वह पर्याय परमस्वभाव के आश्रय से ही प्रगट होती है, इसलिए परमस्वभाव को ही कर्मरूपी वृक्ष की जड़ उखाड़नेवाला कहा है । वास्तव में परमस्वभाव में कर्म का त्रिकाल अभाव ही है।
समस्त जीवों को यह परमस्वभाव निश्चय से विद्यमान होते हुए भी, जिसे इसका भान नहीं है - ऐसे कुदृष्टि मिथ्यादृष्टि को तो अविद्यमान
ही है।
___ जब पर्याय अन्तर्मुख होकर परमात्मतत्त्व का आश्रय करती है, तब
आसन्नभव्यजीव के पुण्य-पापरूप विकार की जड़ें उखड़ जाती है। इसका नाम आलुंछन है। स्वभाव के आश्रय से राग-द्वेष-मोह की जड़ें उखाड़ फेंकने का नाम आलुंछन है और यही संवर है।
शरीरादि और पुण्य-पाप तो दूरवर्ती बाह्यतत्त्व हैं और संवरनिर्जरारूप निर्मलपर्याय निकटवर्ती बाह्यतत्त्व हैं। ___ संवर-निर्जरा आत्मा की शुद्धपर्यायें हैं, फिर भी त्रिकाली शक्ति की अपेक्षा इन प्रगट पर्यायों को बाह्यतत्त्व कहा है। त्रिकाली ध्रुवशक्ति अन्तःतत्त्व है और उसके आश्रय से प्रगट हुई निर्मलपर्याय बाह्यतत्त्व है; क्योंकि पर्याय के आश्रय से निर्मलता या धर्म नहीं होता। त्रिकाली ध्रुव अंतस्तत्त्व परमपारिणामिकभाव त्रिकाल सिद्धस्वरूप है। उसके ही आश्रय से आसन्नभव्यजीव को निश्चय आलोचना उत्पन्न होती है।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९१३ ३. वही, पृष्ठ ९१६
२. वही, पृष्ठ ९१४ ४. वही, पृष्ठ ९१७