________________
१५९
गाथा ११० : परमालोचनाधिकार स्वर्णपना है; उसीप्रकार अभव्यों को भी परमस्वभावपना है। ध्यान रहे वह परमस्वभाव वस्तुनिष्ठ है, व्यवहारयोग्य नहीं है। ___ तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार सुमेरु की तलहटी में विद्यमान सोना यद्यपि विद्यमान है, तथापि वह कभी उपयोग में नहीं लाया जा सकता; उसीप्रकार यद्यपि अभव्य के भी परमस्वभाव विद्यमान है; तथापि उसके आश्रयं से पर्याय में मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती।
सुदृष्टियों को अर्थात् अति आसन्न भव्यजीवों को यह परमस्वभाव सदा निरंजनपने के कारण अर्थात् निरंजनरूप से प्रतिभासित होने के कारण सफल हुआ है; इसकारण इस परमपंचमभाव द्वारा अति-आसन्न भव्यजीव को निश्चय परम-आलोचना के भेदरूप उत्पन्न होनेवाला आलुंछन नाम सिद्ध होता है; क्योंकि वह परमभाव समस्त कर्मरूपी विषम विषवृक्ष के विशाल मूल (मोटी जड़) को उखाड़ देने में समर्थ है।" - इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “परमशुद्ध चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन से समस्त विकारी भावों
को उखाड़ फेंकने का नाम आलुंछन है। ____ आत्मा में एकाग्रता करना धर्म है। इसलिए जिन्हें धर्म करना हो, उन्हें निजात्मा में एकाग्रता करनी चाहिए। आत्मा में एकाग्र होने का गुण तो है, पर वह अनादिकाल से पर में एकाग्र हो रहा है, अपनी विपरीत मान्यता के कारण पुण्य-पाप में एकाग्र हो रहा है।
आत्मस्वभाव में एकाग्र होने के लिए उसके परमपारिणामिक भाव का यथार्थ स्वरूप बताते हैं। यह गाथा बहुत ही अलोकिक है। इसमें त्रिकालीध्रुव परमपारिणामिकभाव की अलौकिक महिमा बताई है।
इस गाथा में त्रिकालीध्रुव आत्मा का ही परमभाव के रूप में वर्णन किया है। जिसमें अनन्त गुणों की निर्मलता प्रगट करने की शक्ति
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९११