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गाथा १०९ : परमालोचनाधिकार
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छठवाँ छन्द इसप्रकार है -
(वसंततिलका) त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि । संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं निर्मुक्तिमार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम् ।।१५९ ।।
(हरिगीत) भिन्न जो निजभाव से उन विभावों को छोड़कर। मैं करूँ नित चिन्मात्र निर्मल आतमा की भावना ।। कर जोड़कर मैं नमन करता मुक्ति मारग को सदा।
इस दुखमयी भव-उदधि से बस पार पाने के लिए।।१५९|| निजभाव से भिन्न सभीप्रकार के विभाव भावों को छोड़कर एक निर्मल चिन्मात्र भाव को भाता हूँ। संसार सागर से पार उतरने के लिए जिनागम में भेद से रहित कहे गये मुक्तिमार्ग को भी मैं नित्य नमन करता हूँ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“पहले अभेद आत्मतत्त्व को नमस्कार किया और अब उसके आश्रय से प्रगट होनेवाले वीतराग मुक्तिमार्ग को नमस्कार करता हूँ। इसके अलावा रागादि को या भेद की भावना को थोड़ा भी नमस्कार नहीं करता अर्थात् उन्हें किंचित् भी उपादेय नहीं मानता।" ___ इस छन्द में निजभावरूप चिन्मात्रभाव की भावनापूर्वक मुक्तिमार्ग को नमन किया गया है । कहा गया है कि मैं निजभाव से भिन्न सभीप्रकार के विभावभावों से रहित निर्मल चिन्मात्रभाव की भावना भाता हूँ और संसारसागर से पार उतरने के लिए अभेदरूप मुक्तिमार्ग को बारंबार नमन करता हूँ।।१५९||
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९०९