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नियमसार अनुशीलन
( हरिगीत ) सब ग्रन्थ से निर्ग्रन्थ शुध परभावदल से मुक्त है। निर्मोह है निष्पाप है वह परम आतमतत्त्व है। निर्वाणवनिताजन्यसुख को प्राप्त करने के लिए।
उस तत्त्व को करता नमन नित भावना भी उसी की॥१५८|| सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त, निर्मोहरूप, पापों से रहित और परभावों से मुक्त परमात्मतत्त्व को; मुक्तिरूपी स्त्री से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रियसुख की प्राप्ति के लिए नित्य नमन करता हूँ, सम्भावना करता हूँ, सम्यक्प से भाता हूँ। ____ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “चैतन्य शुद्धात्मतत्त्व, समस्त परद्रव्यों के संग से रहित असंग है; उसमें किसी परद्रव्य का संग नहीं है । तथा वह किसी परद्रव्य के संयोग से प्राप्त नहीं होता । देव-शास्त्र-गुरु का संग भी चैतन्य वस्तु में नहीं है।
स्वरूप की सावधानी के अलावा किसी भी परद्रव्य की सावधानी करना मोह है, और चैतन्यस्वभाव मोह से रहित निर्मोह है।
समस्त पुण्य-पाप से पार तथा समस्त परभावों से मुक्त (रहित) - ऐसे परमात्मतत्त्व की भावना ही मोक्ष के अतीन्द्रिय सुख की कारण है। इसलिये मैं अशरीरी सुख के लिए सदा सम्यक्पने परमात्मतत्त्व को भाता हूँ, प्रणाम करता हूँ और उसमें ही स्थिर होता हूँ।" ___ इस छन्द में मुक्ति प्राप्त करने की भावना से परमात्मतत्त्व की संभावना की गई है, उसे नमन किया गया है। कहा गया है कि अंतरंग और बहिरंग - सभी २४ परिग्रहों से मुक्त, पापभावों से रहित, परभावों से भिन्न, निर्मोही परमात्मतत्त्व को; शिवरमणी के रमण से प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द की भावना से नमन करता हूँ और उनकी भली प्रकार संभावना करता हूँ।।१५८|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९०६-९०७