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नियमसार अनुशीलन ___अन्य रीति से कहें तो मैं भेदोपचारचारित्र को अभेदोपचार करता हूँ। भेदोपचार का अर्थ है रागवाला चारित्र, उसको टालकर अभेदोपचार चारित्र प्रगट करता हूँ। अभी अभेद की भावना है, इसलिये उसको भी उपचार कहा और उस अभेदचारित्र की भावना का विकल्प भी छोड़कर स्वरूप में निश्चल होना अभेद-अनुपचारचारित्र है। मैं अपने चारित्र को अभेद-अनुपचार करता हूँ। ___ इसतरह तीन प्रकार के चारित्र के उत्तरोत्तर अंगीकार करने से सहजपरमतत्त्व में अविचल स्थिरतारूप निश्चयचारित्र होता है। वह चारित्र निराकारतत्त्व में स्थित होने से निराकारचारित्र कहा जाता है। उसमें राग का विकल्प नहीं है; अतः वह मुक्ति का कारण है।
भेदरहित जो त्रिकाली चैतन्यतत्त्व है, उसको यहाँ निराकार कहा है और उसमें लीनतारूप चारित्र भी निराकार है। इसप्रकार द्रव्य और पर्याय दोनों को निराकार कहा है। ऐसा निराकार वीतरागीचारित्र ही मोक्ष का कारण है।" ___ इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मैं शुद्धोपयोगरूप चारित्र में स्थित होता हूँ। इससे चारित्र की कमजोरी के कारण जो अस्थिरतारूप दोष रहा है, वह भी समाप्त हो जावेगा।
यह तो सुनिश्चित ही है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव और मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव श्रद्धान के दोष से तो मुक्त ही थे; क्योंकि वे सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा मुनिराज थे।
चारित्र में भी तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धि विद्यमान थी; किन्तु संज्वलन कषाय के उदय के कारण जो थोड़ी-बहुत अस्थिरता रह गई थी, वे उसका भी प्रत्याख्यान करके पर्याय में भी पूर्ण शुद्ध होना चाहते थे। इसलिए इसप्रकार के चिन्तन में रत थे कि मैं तो ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा हूँ, बाह्यभावों में से कोई भी मेरा नहीं है ।।१०३।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८३३-८३४