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गाथा १०३ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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दूसरे प्रकार से कहें तो मैं भेदोचार चारित्र को अभेदोपचार करता हूँ तथा अभेदोपचार चारित्र को अभेदानुपचार करता हूँ ।
इसप्रकार त्रिविध सामायिक ( चारित्र) को उत्तरोत्तर स्वीकृत करने से सहज परमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चयचारित्र होता है । वह निश्चयचारित्र निराकारतत्त्व में लीन होने से निराकारचारित्र है । " इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
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"मैं चैतन्यचिन्तामणि परमात्मा हूँ, रागादिभाव मैं नहीं हूँ - ऐसा प्रथम जिसने निर्णय किया हो, उसको ही रागादि का प्रत्याख्यान होता है। चैतन्य में लीन होने पर वीतरागता प्रगट होती है और रागादि दोषों का प्रत्याख्यान होता है ।
शुभविकल्प उठे, उसका नाम साकारचारित्र है और विकल्प छोड़कर स्वरूप में लीन होना निराकारचारित्र है । '
मलिनपर्याय भी त्रिकालीतत्त्व की अपेक्षा से परद्रव्य है और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की पर्याय भी त्रिकालीतत्त्व की अपेक्षा से परद्रव्य है, इनमें से किसी के भी आश्रय से कल्याण नहीं होता; कल्याण तो त्रिकाली ध्रुवतत्त्व के आश्रय से ही होता है । प्रथम ऐसे तत्त्व का निर्णय करके पश्चात् उसमें एकाग्र होने पर मुनिदशा प्रगट होती है।
यहाँ मुनिराज कहते हैं कि मैं निजपरमात्मतत्त्व के श्रद्धान- ज्ञान और एकाग्रता द्वारा व्यवहार श्रद्धान - ज्ञान और चारित्र के विकल्प को छोड़ता हूँ अर्थात् राग को छोड़कर रत्नत्रय को शुद्ध करता हूँ साकाररत्नत्रय को निराकार करता हूँ - इसका अर्थ ऐसा समझना कि साकाररत्नत्रय में जो राग है, उसे छोड़कर स्वभाव के आश्रय से वीतरागरत्नत्रयं प्रगट करता हूँ। देखो ! इसका नाम प्रत्याख्यान है और ऐसा प्रत्याख्यान निजस्वभाव के आश्रय से प्रगट होता है।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८२९
३. वही, पृष्ठ ८३० - ८३१
२. वही, पृष्ठ ८३० ४. वही, पृष्ठ ८३२