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जैन धर्म का स्वरूप
बन्धन की अपेक्षा (दृष्टि से ) सुवर्ण और लोह - दोनों की बेड़ियाँ समान हैं। जो बन्धन से बचना चाहता है उसे सुवर्ण (पुण्य) की बेड़ी भी तोड़नी होगी । ... परमार्थ का विचार किया जावे तो पुण्य और पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध इस जीव को संसार में ही रोकनेवाला है ।
जैन धर्म में आत्मशुद्धि या आत्मज्ञान को ही धर्म कहा गया है। कर्मों का नाश और मोक्ष की प्राप्ति इससे ही होती है। इसलिए आत्मशुद्धि और आत्मज्ञान के लिए अन्तर्मुखी साधना न कर बहिर्मुखी क्रियाओं में लगना और तप आदि कर्म द्वारा शरीर को कष्ट देना व्यर्थ और निष्फल है। जैन ग्रन्थ रयणसार में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से चेतावनी दी गयी है:
हे बहिरात्मा ! तू क्रोध, मान, मोह आदि का त्याग न करके जो व्रत तपश्चरणादि (तप आदि कर्म) के द्वारा शरीर को दण्ड देता है, क्या इससे तेरे कर्म नष्ट हो जायेंगे ? कदापि नहीं । इस जगत् में क्या कभी बिल को पीटने से भी सर्प मरता है ? कदापि नहीं । 87
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यही कारण है कि जैन धर्म में हठकर्मों और बहिर्मुखी क्रियाओं को धर्म नहीं माना गया है और उन्हें छोड़कर किसी सच्चे गुरु की सहायता से सच्चे धर्म को अपनाने और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है। उदाहरण के लिए, अमृताशीति में कहा गया है:
गिरि गहन, गुफा आदि तथा शून्य वनप्रदेशों में स्थिति, इन्द्रियनिरोध, ध्यान, तीर्थसेवन, पाठ, जप, होम आदिकों से व्यक्ति को सिद्धि नहीं हो सकती। अतः हे भव्य (मोक्षार्थी ) ! गुरुओं के द्वारा कोई अन्य ही उपाय खोज। 88
'धर्म क्या है और क्या नहीं है' के सम्बन्ध में यहाँ जो कुछ कहा गया है उससे जैनाचार्यों के धर्म-विषयक दृष्टिकोण की यथार्थता या सत्यता सहज ही प्रकट होती है। इसमें सन्देह नहीं कि जैनाचार्यों ने लोकहित की भावना से प्रेरित होकर ही धर्म के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों की विस्तारपूर्वक विवेचना की है और अपने विचारों को स्पष्टता और निर्भीकता के साथ व्यक्त किया है।