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जैन धर्म का स्वरूप
ज़बरदस्ती अपने विचार दूसरों पर लादने का दुष्प्रयत्न कभी न करो, जो कि कभी सफल नहीं हो सकता। हो सकता है कि कोई जानबूझकर या बिना जाने ग़लती कर रहा हो या उसने वस्तु के स्वरूप व अन्य बातों को ग़लत समझ रखा हो, तो भी उससे द्वेष न कर यदि तुमसे बन सके और तुम उसे समझाने का पात्र समझो तो उसे वास्तविकता समझा दो, वर्ना मध्यस्थ रहो और उसकी मूर्खता पर या ज्ञान की हीनता पर झुंझलाओ नहीं, बल्कि दया करो। असहिष्णु बनकर लड़ने-झगड़ने की मूर्खता कदापि मत करो।
उक्त कथनों से यह स्पष्ट है कि जैन धर्म सुख-शान्ति चाहनेवाले जीवों को अनेक प्रकार से उदार दृष्टि अपनाने और सबके साथ सहानुभूति और सद्भाव रखते हुए समता, मित्रता, प्रेम आदि सद्गुणों को ग्रहण करने का सन्देश देता है। नाथूराम डोंगरीय जैन ने जैन धर्म के इस दृष्टिकोण को बड़ी ही स्पष्टता के साथ व्यक्त किया है। वे कहते हैं:
जैन धर्म यह बतलाता है कि भाइयों! यदि तुम सचमुच ही शान्ति के इच्छुक हो तो दुनिया के प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र समझते हुए उससे उदारता का व्यवहार करो और मतभेद होने मात्र से किसी को अपना दुश्मन समझकर उससे द्वेष या झगड़ा मत करो; क्योंकि विभिन्न प्राणियों के नाना स्वभाव और विचित्र दृष्टिकोणों के होने के कारण मतभेद होना स्वाभाविक है।
इस प्रकार जैन धर्म साम्प्रदायिकता (संकुचित विचारों) का नाश कर दुनिया के प्रत्येक प्राणी को मतभेद रहते हुए भी परस्पर मित्रता के साथ रहने, सत्य को उदारता से ग्रहण करने तथा फूट, कलह, विसंवाद व विरोध को दूर कर-समता, स्वतन्त्रता, निर्भयता और वात्सल्य का पूर्ण समर्थन करने के साथ जोरों से घोषणा करता है कि मतभेद मात्र से किसी से घृणा और द्वेष करना कदापि उचित और धर्म नहीं हो सकता है। धर्म का उद्देश्य और स्वरूप तो विषमता तथा द्वेष का अन्त कर संसार में समता और प्रेम को स्थापित करना है।61