________________
जैन धर्मः सार सन्देश अपना वास्तविक स्वरूप है। आत्मा के इस वास्तविक स्वरूप को पहचानना ही धर्म है। दूसरे शब्दों में, जिससे आत्मा की वास्तविकता की पहचान होती है, अर्थात् जिससे आत्मा के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति होती है, उसे ही धर्म कहते हैं। __ 'धर्म' शब्द का अर्थ धारण करना, सँभाल करना अथवा अवलम्ब या सहारा देकर बचाना या रक्षा करना भी किया जा सकता है। इस अर्थ के अनुसार जो आत्मा को उसके दोषों और विकारों से बचाकर पवित्र बनाये रखे, उसे उसके अनन्त चेतन और अनन्त आनन्दमय स्वरूप में धारण किये रहे, उसे उसके मूल गुण दया से सदा ओत-प्रोत रखे तथा उसे दुर्गति और दुःख से बचाये, उसे ही धर्म कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जो आत्मा को सदा के लिए सुख-शान्ति प्रदान करे वही धर्म है। सांसारिक दुःखों से छुटकारा पाकर नित्य या अविनाशी सुख-शान्ति को प्राप्त करने को ही मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इसलिए जैन परम्परा के अनसार, धर्म को मोक्ष का साधन या कारण माना जाता है।
जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के सहारे आकाश मण्डल के असंख्य ग्रह और तारे अपने-अपने स्थान पर रहते हुए अपनी-अपनी गति से अपनी-अपनी राह पर चलते रहते हैं और आपस में टकराते नहीं, उसी प्रकार धर्म का सहारा लेकर ही सभी जीव अपने-अपने स्वरूप को क़ायम रखते हुए सदा सुख-शान्ति अनुभव कर सकते हैं और सबके साथ सुख-शान्तिपूर्वक रह सकते हैं। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के अभाव में ग्रहों और तारों की स्थिति बिगड़ सकती है और वे नष्ट-भ्रष्ट हो सकते हैं, उसी प्रकार धर्म को ठीक रूप से ग्रहण न करने के कारण जीव भी दुःख और दुर्गति प्राप्त करते हैं। इसलिए धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना और उसे पालन करना अत्यन्त आवश्यक है।
जैन धर्म के मर्मज्ञ आचार्यों ने धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की है और इसके अनेक लक्षणों का उल्लेख किया है। उन्होंने इस मूल बात की ओर हमारा ध्यान दिलाया है कि धर्म का सम्बन्ध बाहरी वस्तुओं से नहीं, बल्कि अपनी आत्मा से है। आत्मा जब राग, द्वेष और मोह से प्रभावित होती है या जब क्रोध, मान, माया और लोभ नामक विकार, जिन्हें जैन धर्म में कषाय कहा