________________
जैन धर्म का स्वरूप जैन धर्म क्या है? इस पुस्तक का आरम्भ करते हुए पहले अध्याय में ही कहा जा चुका है कि 'जैन' शब्द 'जिन' शब्द से बना है और 'जिन' शब्द का अर्थ है 'विजेता' या 'जीतनेवाला'। राग-द्वेष आदि दोषों और काम-क्रोध, मोह आदि विकारों पर विजय प्राप्त कर जो पूर्ण रूप से मुक्त और सुखी हो जाता है उसे ही 'जिन' कहा जाता है। ऐसे जिन पुरुष अनादि काल से जीवों के कल्याण के लिए संसार में आते रहे हैं। जैन-परम्परा के अनुसार वर्तमान युग में भी ऐसे चौबीस महापुरुष आ चुके हैं जिनका उल्लेख प्रथम अध्याय में ही किया जा चुका है। सभी जिन पुरुषों के समान रूप से सर्वज्ञ और मुक्त होने से उनका बताया हुआ मोक्ष-मार्ग भी सदा एक ही होता है। इन जिन पुरुषों द्वारा बताये गये मोक्ष-मार्ग को ही जैन धर्म कहते हैं।
जैन धर्म का स्वरूप बतलाते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन ने भी ऐसा ही विचार प्रकट किया है। वे कहते हैं:
जिस महापुरुष ने राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान आदि कर्म शत्रुओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली हो और आत्मा को पूर्ण सुखी व अनन्त ज्ञान का भण्डार बना लिया हो, उसे 'जिन' कहते हैं (मोहादि कर्म शत्रून् जयतीति जिनः) और इस ही वीर एवं महापुरुष के द्वारा जो विश्व के दुःखी प्राणियों को भेद-भाव के बिना कल्याणमय सच्चा मार्ग प्रकट किया जाता है, जिससे कि संसार की दुःखी आत्माएँ उसके ही समान परमात्मा बन सकें, उस मार्ग को ही जैन धर्म कहते हैं। सारांश यह है कि सांसारिक आत्माओं की दीनता को दूर कर वीरता के साथ पापवासनाओं व रागद्वेषादि विकारों पर उन्हें पूर्ण विजयी बनाकर वास्तविक आनन्द तथा शांति के प्रशस्त मार्ग पर ले जा परमात्मपद प्रदान करेनवाले धर्म को जैन धर्म कहते हैं।'
जैन धर्म के सामान्य लक्षण धर्म के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध उक्ति है: 'वत्थु सहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। आत्मा ही मूल वस्तु है और अनन्त दृष्टि, अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द (अनन्त चतुष्टय) इसका स्वभाव या इसका