________________
334
उसे परमात्मा, केवली, जिन, अरहन्त, स्वयम्भू,
पुकारते हैं। 30
जैन धर्म : सार सन्देश
. आदि नामों से
...
परमात्मा के गुणों का न यथार्थ रूप से वर्णन किया जा सकता है और न किसी संसारी पदार्थ से उसकी उपमा ही दी जा सकती है। फिर भी जीवों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार उन्हें समझाने के लिए शुभचन्द्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव ग्रन्थ में परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में इसप्रकार कहा है:
निर्लेपो निष्कलः शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिर्वृतः । निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ॥
जो निर्लेप है, अर्थात् जिसमें कर्मों का लेप नहीं है, जो निष्कल (शरीर रहित) है, शुद्ध है, अर्थात् जिसमें राग, द्वेष आदि विकार नहीं है, जो निष्पन्न है, अर्थात् पूर्णरूप है (जिसे कुछ करना शेष नहीं है), जो अत्यन्त निर्वृत है, अर्थात् सबसे सर्वथा मुक्त सुखरूप है और जो निर्विकल्प है, अर्थात् जिसमें भेद नहीं है, ऐसे शुद्धात्मा को परमात्मा कहा गया है। 31
वे फिर कहते हैं:
सिद्ध (पूर्ण) भगवान् शरीररहित, इन्द्रियरहित, मन के विकल्पों से रहित निरंजन हैं (जिन्हें मैल नहीं लगती) । वे अनन्त वीर्य (शक्ति) और अखण्ड आनन्द से युक्त आनन्दरूप हैं।
वे परमेष्ठी (परमपद में विराजमान), परम प्रकाशमय, परिपूर्ण और सनातन (सदा बने रहनेवाले) हैं।
पूर्णत: तृप्त (तृष्णा से बिल्कुल रहित ) परमात्मा तीन लोक के शिखर पर सदा विराजमान हैं। इस संसार में कोई भी ऐसा सुखदायक पदार्थ नहीं है जिसके सुख से परमात्मा के सुख की उपमा दी जाये । उनका सुख अनुपम है।
परमात्मा की महिमा और उनके अनन्त ज्ञान का वैभव वचनों से कहने योग्य नहीं है। उनके गुणों का समूह केवल सर्वज्ञ पुरुष के ज्ञान ( अनुभव) का विषय है।
32