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आत्मा से परमात्मा
जन्मजरामयमरणैः शोकैर्दुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम्। निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥ वह निर्वाण, जन्म-जरा-मरण, रोग-शोक, दुःख और भय से परिमुक्त है, वहाँ आत्मा का शुद्ध सुख है और वह नित्य परम कल्याणरूप कहा गया है।
जब जीव सभी कर्मों से मुक्त होकर और स्थूल, सूक्ष्म और कारण-इन तीनों शरीरों से छुटकारा पाकर पूरी तरह शुद्ध हो जाता है, तब यह परमात्मा बन जाता है। उसे ही जैन धर्म में जिन, ईश्वर, परमात्मा आदि नामों से पुकारा जाता है, जैसा कि जैनधर्मामृत में स्पष्ट किया गया है:
निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरक्षयः ।
परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः॥ जो निर्मल है (कर्ममल से रहित है), केवल है (शरीरादि के सम्बन्ध से विमुक्त है), शुद्ध है, विविक्त है [शरीर रूप नो कर्म (जो कर्मनिर्मित है) से वियुक्त है] अक्षय है (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय को धारण करने से क्षय-रहित है), परमेष्ठी है (इन्द्रादिपूजित परम पद में विद्यमान है), परमात्मा है (सर्व संसारी जीवों से उत्कृष्ट है), ईश्वर है (अन्य जीवों में नहीं पाये जानेवाले ऐसे अनन्त ज्ञानादिरूप ऐश्वर्य से युक्त है) और जिन है (सर्व कर्मों का उन्मूलन करनेवाला विजेता है) उसे परमात्मा कहते हैं।29
जो जीव पहले बहिरात्मा था, वही जब विषय-विकारों से अपने ध्यान को हटाकर और उसे अपने अन्दर लाकर उसे आन्तरिक प्रकाश से जोड़ता है, तब वह अन्तरात्मा बन जाता है। फिर वही जीव जब आन्तरिक ध्यान या समाधि की सबसे ऊँची अवस्था में पहुँचता है, तब वह परमात्मा बन जाता है। इसे जैनधर्मामृत में इस प्रकार कहा गया है:
जो इस उत्तम अन्तरात्मा की सर्वोच्च दशा में पहुँचकर अपने सर्व आन्तरिक विकारों का अभाव कर परम कैवल्य को प्राप्त कर लेता है,