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________________ अन्तर्मुखी साधना 313 ध्यान के समय के सम्बन्ध में भी यही बात लागू है कि ध्यान का समय ऐसा हो जब शोर-गुल, अशान्ति या विघ्न-बाधा की सम्भावना न हो। इसी दृष्टि से रात के अन्तिम पहर ( तीन बजे से छः बजे तक) को ध्यान का सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। प्राचीन काल से ही महात्माओं ने इसे पारमार्थिक अभ्यास के लिए अति सुन्दर समय मानते हुए इसे 'ब्रह्म-वेला' या 'ब्रह्म मुहूर्त' नाम दे रखा है। रात के अन्तिम पहर से सुबह तक की यह वेला, जो दिन के शोरगुल के शुरू होने के पहले की वेला है और जिससे नये दिन की शुरूआत होती है, ध्यान के लिए अनुकूल और शान्तिमय सिद्ध होता है। इसीलिए गणेशप्रसाद वर्णी कहते हैं: प्रातः उठकर भगवद्भक्ति करो । चित्त में शान्ति आना ही भगवद्भक्ति का फल है। 102 पर संयमी और धीर साधक ( ध्याता) के लिए कोई भी समय उपयुक्त है । इसलिए उनके लिए समय या स्थान का कोई भी नियम नहीं है । जैन महापुराण में स्पष्ट कहा गया है: उस (ध्याता) के ध्यान करने का कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि सर्वदा शुभ परिणामों का होना सम्भव है। इस विषय में गाथा है— काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीति से योग का समाधान प्राप्त होता है। ध्यान करनेवालों के लिए दिन रात्रि और वेला आदि रूप से समय में किसी प्रकार का नियमन नहीं किया जा सकता है। 103 वास्तव में संयमी और अभ्यस्त ध्याता के लिए समय, स्थान, आसन आदि का कोई खास नियम नहीं है । इसे स्पष्ट करते हुए आदिपुराण में भी कहा गया है: ध्यान करने के इच्छुक धीर-वीर मुनियों या साधकों के लिए दिन-रात और सन्ध्याकाल आदि काल भी निश्चित नहीं है, अर्थात् उनके लिए समय का कुछ भी नियम नहीं है, क्योंकि वह ध्यानरूपी धन सभी
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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