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जैन धर्म की प्राचीनता
रहकर वे कठिन साधना में लगे रहे। बारह वर्ष की कठिन साधना के बाद इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उसके बाद का सारा जीवन इन्होंने जीवों के कल्याण के लिए जैन धर्म का उपदेश देने और इसका विकास करने में लगा दिया । अन्त बिहार के पावापुरी में इन्होंने अपने शरीर का त्याग किया।
जैन धर्म का विकास करने और इसे वर्तमान रूप देने में महावीर का योगदान सबसे अधिक है। इसलिए जैन धर्म में इन्हें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । वैशाली और मगध के प्रसिद्ध राजघरानों से सम्बन्धित होने के कारण जैन धर्म के प्रचार में इन्हें सफलता भी बहुत अधिक मिली ।
बुद्ध और महावीर के समकालीन होने और उन दोनों के धर्म-प्रचार के क्षेत्र भी बहुत कुछ एक होने से बौद्ध धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ पालि त्रिपिटक द्वारा महावीर के जीवन और उनके विचारों के सम्बन्ध में कई बातें मालूम होती हैं । बुद्ध और महावीर दोनों ही श्रमण परम्परा से सम्बन्धित माने जाते हैं और दोनों के विचारों में कुछ समानताएँ भी दिखाई देती हैं। इन दोनों के धर्मग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर इतना अवश्य पता चलता है कि बुद्ध और महावीर समकालीन थे तथा जैन धर्म की परम्परा महावीर के बहुत पहले से चली आ रही थी । पर उस परम्परागत धर्म में आवश्यक सुधार लाने और उसके सिद्धान्तों और आचार - नियमों को निश्चित रूप देने में महावीर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन धर्म के कुछ आचार - नियमों पर महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ के विचारों की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर ने बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखकर जैन धर्म में आवश्यक सुधार किया ।
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जैन धर्म के उत्तराध्ययन सूत्र XXIII में पार्श्वनाथ की परम्परा को माननेवाले केशी और महावीर के शिष्य गौतम के बीच दो आचार - नियमों के सम्बन्ध में संवाद होने का उल्लेख है: (1) जैन परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ 'चातुर्याम' यानी चार संयम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह) का उपदेश देते थे जबकि महावीर ने 'पंचयाम' या 'पंच महाव्रत' (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का प्रचार कर ब्रह्मचर्य के नये नियम को उसमें जोड़ दिया। 15 (2) पार्श्वनाथ ने कटिवस्त्र और उत्तरीय धारण करने अर्थात् कमर में