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________________ 237 अनुप्रेक्षा (भावना) कोई निश्चित काल नहीं है, जिनका आज संयोग है कल उन्हीं का वियोग हो जाता है। आज जो धनी है कल वही दरिद्र हो जाता है। इसप्रकार विचार करने से इस संसार की अनित्यता अपने-आप मालूम हो जाती है। यह बताते हुए कि जीव इस संसार में अज्ञानजनित मोह का शिकार होकर अनित्य को नित्य और दुःख को सुख मानने के भ्रम में पड़ा हुआ अपना विनाश कर रहा है, शुभचन्द्राचार्य हमें इस भ्रम से निकलने के लिए चिताते हैं। वे कहते हैं: हे मूढ ! क्षण-क्षण में नाश होनेवाले इन्द्रियजनित सुख में प्रीति करके ये तीनों भुवन नाश को प्राप्त हो रहे हैं, सो तू क्यों नहीं देखता? ___पुत्र, स्त्री, बांधव, धन शरीरादि चले जाते हैं और जो हैं, वह भी अवश्य ही चले जायेंगे। फिर इनके लिए यह जीव वृथा ही क्यों खेद करता है? जो मूढधी पञ्चेन्द्रियों के विषय सेवने में सुख ढूँढ़ते हैं, वे मानो शीतलता के लिए अग्नि में प्रवेश करते हैं और दीर्घ जीवन के लिए विष पान करते हैं। उन्हें इस विपरीत-बुद्धि से सुख के स्थान दुःख ही होगा। यह जगत इन्द्रजालवत् (जादू या बाजीगरी के समान) है। प्राणियों के नेत्रों को मोहनीअञ्जन के समान भुलाता है, और लोग इसमें मोह को प्राप्त होकर अपने को भूल जाते हैं, अर्थात् लोग धोखा खाते हैं। अतः आचार्य महाराज कहते हैं कि हम नहीं जानते ये लोग किस कारण से भूलते हैं। यह प्रबल मोह का माहात्म्य ही है। इस जगत में जो जो चेतन और अचेतन पदार्थ हैं, उन्हें सब महार्षियों ने क्षण-क्षण में नष्ट होनेवाले और विनाशीक (नश्वर) कहे हैं। यह प्राणी इन्हें नित्यरूप मानता है, यह भ्रम मात्र है। आचार्य पद्मनन्दि ने भी संसार की अनित्यता और इसे न समझने के कारण होनेवाली जीव की दुर्दशा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। वे कहते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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