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दिव्यध्वनि
223 हरिवंश पुराण में भी दिव्यध्वनि की सर्वभाषाओं में परिणत होने की शक्ति का उल्लेख इसी प्रकार की उपमा द्वारा दिया गया है: जिस प्रकार आकाश से बरसा पानी एकरूप होता है, परन्तु पृथ्वी पर पड़ते ही वह नाना रूप में दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान् की वह दिव्य वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सब जीव अपनी-अपनी भाषा में उसका भाव पूरी तरह समझते थे।1
जैन धर्म के स्वयम्भू स्तोत्र ग्रन्थ में भी दिव्यध्वनि को सर्वभाषारूप (सभी भाषाओं में परिणत होने की शक्ति रखनेवाली) बताते हुए कहा गया है:
सर्व भाषाओं में परिणत होने के स्वभाव को लिए हुए आपका (भगवान् • महावीर का) श्री सम्पन्न वचनामृत प्राणियों को उसी प्रकार तृप्त करता है जिस प्रकार अमृत पान करने से जीव तृप्त हो जाता है।2
कसायपाहुड में भी दिव्यध्वनि को सर्वभाषामयी बताते हुए यह समझाने का प्रयत्न किया गया है कि किस प्रकार इसमें अनन्त पदार्थों का ज्ञान प्रदान करने की शक्ति है।23
साधारण मनुष्यों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि एक ही निरक्षरी दिव्यवाणी या दिव्यध्वनि को अनेक भाषा बोलनेवाले किस प्रकार अपनी-अपनी भाषा में ग्रहण करते हैं। तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का प्रकट होना एक गूढ़ आध्यात्मिक अनुभव है। इसकी विशेषताओं को इन्द्रिय, मन
और बुद्धि से प्राप्त होनेवाले साधारण ज्ञान के स्तर पर ठीक-ठीक समझ पाना सचमुच ही बहुत कठिन है। फिर भी एक सर्वसाधारण उदाहरण द्वारा निरक्षरी दिव्यध्वनि के एक होते हुए भी अनेक भाषाओं के रूप में परिणत होने की शक्ति की थोड़ी-बहुत कल्पना की जा सकती है। ..
वाद्य-यन्त्रों की निरक्षरी ध्वनि का उदाहरण लें। तबला, सितार, सारंगी आदि वाद्य-यन्त्रों के वादन को प्रायः हम सबने सना है। पर ताल और सुर के विशेषज्ञ किसी व्यक्ति को इनके मधुर वादन से जैसा अनुभव प्राप्त होगा और वह जितना प्रभावित होगा ठीक वैसा ही अनुभव और वही प्रभाव किसी अन्य