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________________ 10 जैन धर्म की प्राचीनता 'जैन', 'जिन' और 'तीर्थंकर' के अर्थ 'जैन' शब्द 'जिन' शब्द से बना है। 'जिन' शब्द का अर्थ है 'विजेता' या 'जीतनेवाला', अर्थात् राग, द्वेष आदि दोषों पर विजय प्राप्त कर अथवा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को जीतकर जो संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है उसे 'जिन' कहते हैं। जिन के मत को माननेवाले या जिन के बताये मार्ग पर चलनेवाले को जैन कहा जाता है। जिन की अवस्था की प्राप्ति के लिए पूर्ण ज्ञान या सर्वज्ञता (जिसे जैन धर्म में केवल ज्ञान' कहा जाता है) को प्राप्त करना आवश्यक है। इसलिए जिन को 'केवली जिन' भी कहते हैं। केवली जिन दो प्रकार के होते हैं-एक 'सामान्य केवली' और दूसरे 'तीर्थंकर केवली'। सामान्य केवली वे होते हैं जो पूर्ण ज्ञान या केवल ज्ञान प्राप्त कर अपने-आपको बन्धन से मुक्त कर लेते हैं। पर वे दूसरों को उपदेश देने का कार्य नहीं करते। तीर्थंकर केवली वे होते हैं जो पूर्ण ज्ञान या केवल ज्ञान प्राप्त कर दूसरों को इस ज्ञान का उपदेश देते हैं और उन्हें सही मार्ग दिखलाकर उनका कल्याण करते हैं। ऐसे पूर्ण ज्ञानी धर्म-प्रवर्तक और मार्ग-दर्शक ही जैन धर्म में तीर्थंकर कहे जाते हैं। 'तीर्थ' का अर्थ है वह पवित्र निमित्त, घाट या स्थान जहाँ से संसार-सागर को आसानी से पार किया जा सकता है और 'तीर्थंकर' वह है जो उस निमित्त या घाट को स्थापित करता या उसे दिखलाता है और उसके द्वारा जीवों को संसार-सागर से पार कराता है: 19
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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