________________
साधना पथ
(८०). बो.भा.-१ : पृ.-२६२ मुमुक्षुः- सहजात्मस्वरूप का अर्थ क्या?
पूज्यश्रीः- आत्मस्वरुप जैसा है, वैसा। अपने स्वभाव में रहना अथवा कर्ममल रहित जो स्वरूप, वह सहजात्मस्वरूप। जैसे स्फटिक रत्न अन्य पदार्थ के संयोग से लाल, पीला, हरा आदि दिखता है, वह उसका सहज स्वरुप नहीं। जब अकेला-निर्मल स्फटिक रहे, तब उसका सहज स्वख्य है।
जितना सदाचरण होगा उतना ज्ञानीपुरुष का वचन अधिक समझेगा। वैराग्य की जरूरत है। अंतःकरण ज्यों ज्यों निर्मल होगा, त्यों त्यों समझ आएगी। “शुक्ल अंतःकरण बिना मेरे वचनों की दाद कौन देगा?" ढीला न पड़ना। शुरुआत में जीव जोर करता है, बाद में ढीला पड़ जाए तो कुछ न हो। काया में से क्या निकालना है? जीव सारा दिन और रात इस काया का ध्यान रखता है, टाप-टीप करता है और जो अंदर रहनेवाला आत्मा है, उसकी संभाल नहीं लेता। जो करना है वह पड़ा रहता है। स्वयं को भूलकर जो करता है, वह भूल है। पर वस्तु में चित्त है।
मुमुक्षुः- शुक्ल अन्तःकरण क्या है? पूज्यश्रीः- बिना पाप का शुद्ध अन्तःकरण। त्याग-वैराग्य वाला चित्त।
(८१) बो.भा.-१ : पृ.-२६२ स्मरण का जोर अधिक रखना। चलते-फिरते भी स्मरण करना। बीस दोहे आदि तीन पाठ बार-बार भावपूर्वक बोलते रहना। जीव ने बहुत किया है, किन्तु भाव बिना सब लूखा हुआ है। सत्पुरुष का बहुत उपकार है।
आत्मा को उन्नत बनाने वाले ज्ञानियों के वचन हैं। उन्हें जितना याद रखोगे, उतना कल्याण होगा। छः पद के पत्र में सम्यकदर्शन रहा है। जब तक समकित प्रगट न हो तब तक ये छः पद का मर्म समजे ही नहीं। ज्ञानियों के वचन अमूल्य नहीं लगते। पैसा जपता है, मंत्र जप नहीं करता। कोई प्रेरक चाहिए। मुमुक्षु को अच्छा तो जीना है, पर प्रमाद रुकावट डालता है। आत्मा को भूलना ही प्रमाद है। विकथा करनी हो तो सारी रात जागे, पर स्मरण में नींद आ जाती है। अपनी भूलें शोध शोध कर