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साधना पथ अनुसार त्याग करना चाहिए। त्याग में सुख है, यह जीव को समझ नहीं। त्याग करे तो सुख लगे, पर त्याग का नाम लेते ही इसे दुःख लगता है। धर्म न करे तो लाख चौराशी में भटकता है। धर्म करे तो कर्म-क्षय कर सकता है।
(७५) बो.भा.-१ : पृ.-२२८ जीव से क्रोध, मान, माया, लोभ रोका नहीं जाता। क्योंकि वृत्ति बाहर भटकती है। वृत्ति का क्षय करो। मांगने पर भी न दो। अपने दोष विचार करके टालने हैं। जिसके लक्ष्य में भोग है, वह संसारी है। सब करके मुझे आत्म-शांति प्राप्त करनी है, ऐसा जिसे हो, वह साधु है। वह खाता-पीता हो तो भी त्यागी है और दूसरा कष्ट सहे तो भी संसारी है।
"भव तन भोग विरत्त कदाचित चिंतए;
धन जोबन पिय पुत्र कलत्त अनित्त ए।" (जिनेन्द्र पंच कल्याणक)
भोग रोग जैसे हैं, उसका फल दुःख है। धन, जवानी अनित्य है। ऊपर से अच्छा लगता है पर सब जहर-जहर है। मात्र आत्मा एक अमृत है, वह जो चाहे कर सकती है। जो मांगे वह मिलता है। शांति चाहिए तो शांति मिले। सारे जग से छूटना है। आज से ही मानो जन्मे हैं, ऐसा विचार आत्मा का करना है। मोक्ष-द्वार बंध नहीं, पुरुषार्थ करे वह मोक्ष में जा सकता है। “साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय।”
आहार की इच्छा दुःख ही है। इच्छा मात्र दुःख है। ‘है इच्छा दुःख मूल।' ज्यों ज्यों समझ बढ़े त्यों त्यों इच्छा कम होती है। ज्यों ज्यों ऊपर के देवलोक में जाएँ त्यों त्यों संतोष अधिक होता है। ऊपर के देवलोक में (ग्रैवेयक आदि में) स्त्री की इच्छा नहीं होती। सर्वार्थसिद्धि 'देवलोक में सब एकांवतारी होते हैं। त्याग का अभ्यास जितना इस भव में किया जाता है वह वहाँ कायम रहता है। मोहनीय कर्म का क्षय हो तब इच्छा का नाश होता है। दसवें गुणठाणे में इच्छा का क्षय हो फिर उसी भव में मोक्ष होता है। समकिती की इच्छाएँ रुक गई हैं। ज्यों ज्यों समझ बढ़ें