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साधना पथ
और आगे जाते हैं त्यों त्यों इच्छाएँ मंद पड़ती हैं। जितना देहाध्यास छूटे उतनी इच्छाएँ कम होती हैं। पर वस्तु का आधार ही दुःख है। मुनि जंगल में रहते हैं। भूख लगने पर विचार करते हैं कि कल आहार के लिए जाएंगे, ऐसा करके चला लेते हैं।
देवलोक के मुकुट, अलंकार शाश्वत नहीं, सब पुद्गल हैं। देव, चक्रवर्ती बनना, सब पुण्य का खेल हैं। पुण्य नाश होते सब छोड़ना है। कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन लेश्या वाले देवलोक में नहीं जा सकते। कषाय की मंदता न की हो, तो वहाँ नहीं जा सकते। कृष्ण लेश्या के बहुत भेद हैं।
प्रश्नः- खाएँ, पिएँ सब करें, पर राग-द्वेष न करें तो कर्म बंध हो?
उत्तरः- राग-द्वेष न करना, यह मात्र कहने की बात नहीं। बहुत कठिन बात है। चारों गति में दुःख हैं, देवलोक का सुख कोई हिसाब में नहीं। एक वचन सहन करना भाला सहन करने के समान है। भाला सहना सरल है पर वचन सहना बहुत कठिन है। आत्मा की जितनी महत्ता लगे उतना अंदर रुचे। कर्म देखता है इसके बदले आत्मा को देखो। दृष्टि बदले तो मोह कम हो। अन्यथा मोह न मरे। ऊपर ऊपर से देखना नहीं। ऊपर से देखना छल है। मैं आत्मा हूँ, ऐसा जानकर सबको आत्मदृष्टि से देखना।
(७६) बो.भा.-१ : पृ.-२३० देह और आत्मा भिन्न हैं, ऐसा जानकर उसमें टिके रहने का पुरुषार्थ करना है। निर्धार हो तो भूल न हो। निर्धार होने में कमी हो और माना हो कि मैंने निर्धार किया, पर निमित्त मिलने पर वह टिके नहीं। मैं देह से जुदा हूँ। इस देह के लिए सारा दिन गँवाना नहीं। बाह्य वस्तु का जितना परिचय है उतना आत्मा का नहीं। देह परायी है, ऐसा लगा नहीं। देह, सुख भोगने का साधन है, ऐसी मान्यता है। आत्मार्थ के साधनरूप में इसे नहीं जानता। शरीर, दुःख का कारण है। वैराग्य से विचार करे कि यह देह मेरी नहीं।