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________________ साधना पथ ७७ ज्ञानीपुरुष का बोध सुनना, विचार करना और सत्संग करना । व्रत लेने को नहीं कहना हैं। पढ़ने के लिए भी नहीं कहना हैं । सत्संग करे, बोध सुने और विचारें तो पर को अपना नं माने। मोह को मंद करके आओ। यह तो मोह को बढ़ाकर आता है। जिसे आत्मा की कुछ लगनी लगी है और शोध करता हो उसे ज्ञानी के वचन पकड़ में आते हैं। लगनी न हो तो क्या हो ? कर्म के कारण सब चित्र विचित्र दिखता है। (७४) बो. भा. - १ : पृ. २२६ क्षण क्षण में सब बदलाव है । बच्चा, हंमेशा छोटा नहीं रहता। हम जहाँ हैं वहाँ से कुछ आगे चलेंगें तो सब समझ आएगी। " हुँ मारुं हृदये थी टाळ, परमारथ मां पिंड ज गाळ । " - ‘मैं, मेरा' निकाल देना। जागृति रखने से हो सकता है। क्रोध, मान, माया, लोभ का फल क्या आता है ? नरक। और उसका नाश, अपरिचय करे तो हो । जीव चाहें तो कर सकता है। क्रोध आत्मा को जलानेवाला है। स्त्री, कुटुंब आदि में सिर कूटना पड़ता है। वहाँ शांति नहीं मिलती। जहाँ सत्पुरुष हो, वहाँ कलिकाल नहीं । यह जगह अपूर्व है, तीर्थस्थान है छुटने का स्थान है। जीव जागृत हो तो सब समझ आएँ । महापुरुष जहाँ कदम रखते हैं, वहाँ तीर्थ है। त्याग, त्याग और त्याग यह कहना है। एक बार प्रभुश्रीजी ने त्याग, त्याग और त्याग, इस तरह बंदूक छूटे, वैसी आवाज करके कहा था। आखिर मोक्ष जाएगा तब कोई स्त्री-पुत्रादि को साथ लेकर जाएगा ? मृत्यु आए तब सब छोड़ना पड़ता है। त्याग को भूले, छोड़े तो संसार है। चक्रवर्ती जैसे छः खण्ड का राज्य करते थे, पर दुःख लगा कि यह तो क्लेश है, खेदकारक है, तो छोड़कर चल निकले। यह न सोचा कि राज्य कौन करेगा? त्याग अवस्था में ज्ञानी का योग हो तो अधिक लाभ हो। संसार की वासना निर्मूल हो जाए, इतनी इस में शक्ति है। संसार अच्छा होता तो छोड़ने को न कहते। अज्ञान के कारण अच्छा लगता है। अपनी शक्ति
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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