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साधना पथ माहात्म्य मानकर उसी में ही तल्लीन रहता है। तुच्छ वस्तुएँ जीव की चारों बाजु हैं, अतः आत्मा का माहात्म्य नहीं लगता। नाशवंत वस्तुएँ तो कभी भी नाश होनेवाली ही हैं, ऐसी की ऐसी रहनेवाली नहीं। पर की पंचात में समय न गँवाओ। अपने वास्तविक स्वरूप को जाना हो तो भवोभव में काम आएँ, परभव में भी साथ आएगें, परंतु जीव को माहात्म्य नहीं है। सत्संग में अपनी काम की वस्तुएँ सुनने को मिलती हैं। आवश्यक वस्तुएँ बार-बार सुनने से माहात्म्य लगता है। इस के लिए बहुत बोध की जरूरत है। कितने ही भवों की कमाई रूप यह मानवभव है। वह भी इस कलिकाल में कम आयु वाला है। कुत्ते-कौए के भवों में भटकते-भटकते यह मनुष्यभव बहुत पुण्य के योग से मिला है।
(७३) बो.भा.-१ : पृ.-२१९ प्रश्न : आयंबिल किया हो और रसवाले पदार्थों में मन जाता हो तो क्या विचार करना?
पूज्यश्री :- बहुत खाया है। खाया हुआ क्या बनें? विष्टा। जगत जूठ जैसा है। आत्मा का हित हो, ऐसे विचार करना। घी से हित है या ज्ञानी के वचनों से? ज्ञानी के वचनों से आत्मा का हित है, तो मुझे घी नहीं खाना। क्या करने आया और क्या कर रहा हूँ? यह विचार करो। जीव को आदत पड़ गई है, पर इसका फल क्या आएगा, नहीं जानता। कल्पना से या लोगों के कहने से रस में लुब्ध होता है। रस को जीते तो ज्ञानी के वचनों में रस आएँ। अभयदेवसूरिजी को आयंबिल करना ठीक पड़ा। बारह अंगों की टीका लिखने तक आयंबिल ही किए। आत्मा तरफ जाएँ तो लाभ हो। भारी खाया हो तो पचाने के लिए मेहनत करनी पड़े। यह आयंबिल का भोजन तो जल्दी ठिकाने जाता है। लोलुपता जीव को नीचे ले जाती हैं, अधोगति होती है।
कुमारपाल महाराजा ने सात व्यसनों का त्याग करके गृहस्थ के व्रत लिए। एक बार उसे घेबर खाते, “मांस का स्वाद ऐसा ही होता था।"