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साधना पथ
"सद्गुरु ना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप ।
समज्या वण उपकार शो ? समज्ये जिनस्वरूप ।। " १२ आ. सि.
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बो. भा. - १ : पृ. २१३ संसार भोगना और मोक्ष पाना, दोनो एक साथ नहीं हो सकता । काल ऐसा है कि जीव को धर्म की रुचि मुश्किल से है । मैं दुःखी हूँ और मुझे छूटना है ऐसी तड़प वाले जीव कम हैं। जैसी तड़प जागेगी, वैसा पुरुषार्थ जीव करेगा। स्मरण में चित्त रखना । क्षण भी व्यर्थ न गँवाना, चाहे कुछ भी हो तथापि अपने को सत्साधन मिला है, वह न चूकें। बारम्बार मन भटकता है। वह कहाँ जाता है ? उसका ख्याल रखें। वह हितकारी में जाता है या अहितकारी में ? यदि अहितकारी में जाता हो तो वापिस मोड़ना । बारम्बार मन का ख्याल रखना। अभी देह छूट जाए तो कैसा हो ?
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देह और आत्मा दोनों अलग हैं। शरीर के विचार आत्मा को मार डालनेवाले हैं। मात्र इस देह से धर्म होता है, इसलिए उसे पोषण देना है। देह से प्रीति करने योग्य नहीं है। मात्र यह देह भक्ति के लिए काम में आए, इसलिए उसे आहार देना, सुलाना, नहलाना आदि करना पड़ता है। (७२) बो. भा. - १ : पृ. २१४
पंचम काल में व्याधि-पीड़ा अधिक है, धर्मध्यान नहीं होता । ख्याल रखे तो हो। वरना आजीविका के लिए पूरा मनुष्यभव लुटाया जाता है। जहाँ हो, वहाँ सत्संग, सत्शास्त्र का वाँचन रखें। तड़प नहीं, अतः संसारी निमित्त मिलते ही उसमें तल्लीन हो जाते हैं। अस्थिरता बहुत है, उसे बढ़ाने के निमित्त भी बहुत हैं। पूर्व की आराधकता नहीं, तभी ऐसा है । जन्म-मरण सिर पर घूमता है, जीव को मृत्यु की याद नहीं रहती । ज्ञानी के वचन इसके हृदय में चिपकते नहीं । सुना हो वह अनसुना हो जाता है। किंमती वस्तु लगी हो तभी तो संभाल रखे । मनुष्यभव किंमती वस्तु है | क्षण क्षण करते बहुत समय बीत गया। पर अब जागना है और अच्छा जीना है । जीव को समझ नहीं, अन्य के प्रति आकर्षित हो जाता है। तुच्छ वस्तु का जीव