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साधना पथ करते जो रहता है, वह मैं हूँ। ज्ञानी ने जाना है, वैसी शुद्ध आत्मा मैं हूँ। यह “सोहम्" भावना है। अभिमान छोड़ने के लिए शास्त्र हैं। अभिमान करने के लिए नहीं। आत्म परिणाम की स्वस्थता, शुद्धता ही समाधि है। प्रथम आत्मा और बाद में सब।
इस काल में उपदेश को पकड़ने वाले नहीं रहे, अतः उपदेशक भी मंद होते गए। पहले के जीव इतने सरल थे कि ज्ञानीपुरुष के वचनों का पालन करते। ज्ञानी की आज्ञा लेकर अखंडरूप से पाले, ऐसे जीव पूर्व में थे। आज के जीवों को तो कृपालुदेव कहते हैं कि आज्ञा करना ही भयंकर है। "जब तक आत्मा सुदृढ़ प्रतिज्ञा से वर्ते नहीं तब तक आज्ञा करना भयंकर है" (श्री.रा.प.-९४१) मुनदास, अंबालाल, जूठाभाई शक्तिशाली थे, पर आयु कम थी। क्योंकि यह पंचम काल ही ऐसा है। एक प्रभुश्रीजी लंबी आयुवाले निकले तो यह मार्ग मिला।
(६७) : बो.भा.-१ : पृ.-२०२ बीज बोने का मौसम आए, तब किसान काम करने लगता है। चाहे कितना भी सूर्य तप रहा हो तो भी काम करता है। थोड़ा करे या ज्यादा करे पर खाली नहीं बैठता। वह जानता है कि मौसम में खेती न की, तो फिर खाने को नहीं मिलेगा। उसी तरह जीव को लगे कि मुझे आत्म कल्याण करना है तो फिर अभ्यास करने लगता है। यह आत्म अभ्यास करने का है।
मुमुक्षु :- वेदनीय न आए तब तक देह से भिन्न हूँ, ऐसा करते हैं, परंतु वेदनीय का उदय होते ही फिर वृत्ति देह में चली जाती है।
पूज्यश्री :- यह सही अभ्यास नहीं है। अभ्यास किया हो तो वेदना आने पर जागृति बनी रहे। अभ्यास करना हो तो अनुकूलता चाहिए। अभ्यास हो जाने के बाद चाहे कैसी भी प्रतिकूलता आए, तो भी कुछ असर नहीं होता। कामदेव आदि श्रावक अभ्यास करने के लिए स्मशान में जाकर काउसग्ग ध्यान में रहते थे। चाहे कैसे भी कष्ट आएँ पर काउसग्ग से चूकते नहीं। अभ्यास करने में पहले तो अनुकूलता चाहिए।