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साधना पथ कुछ न बने तो सत्संग करना, उस से चेतना आती है। जीव ने स्वच्छंद से बहुत किया है, पर ज्ञानी की आज्ञा से करे तो छूटने का क्रम हाथ आएँ। धर्म का मूल, ज्ञानी की आज्ञा है। ज्ञानी का एक बोल मृत्यु समय याद आएँ तो मरण सुधर जाएँ। जहाँ जहाँ जीव की वासना है, वहाँ वहाँ जन्म लेना पड़ता है। अतः ज्ञानी के वचनों में चित्त रहे तो उसकी वासना जाएँ।
(६५) बो.भा.-१ : पृ.-१९९ जीव देहाध्यास छोड़े तो शांत होवें, और उसकी कषाय जाएँ। जगत की कोई वस्तु की इच्छा न हो, तो शांति हो जाए। सब आत्मा के कारण पता लगता है। जाननेवाले में उपयोग रहे तो अपने स्वरूप का पता लगे। आत्मा परमेश्वररूप है। रूप, रस, गंध सब अलग है। जाननेवाला इन सब से अलग है। आत्मभावना भावे तो परमानन्द पद प्राप्त हो। सारा विश्व जिसमें दिखता है, वह आत्मा। आत्मा से, ज्ञान अलग नहीं। जो स्थुल, सूक्ष्मादि रूप को जानता है, और सब को बाधित करता हुआ जो किसी से भी बाधित नहीं हो सकता, ऐसा जो शेष अनुभव है वह जीव का स्वरूप है। 'अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीव स्वरूप।' आत्मा की भावना करते करते तद् रूप बना जाता है। प्रभु प्रभु लय लगानी है। वह लगे तो उस पद को पाएँ। एक असंग आत्मा समझ में आएँ। चैतन्यमय हूँ, एक हूँ, अखंड हूँ, ऐसी आत्मभावना एक लक्ष्य से करो। मैं देह हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, पैसादार हूँ, गरीब हूँ, ऐसा अहंभाव त्यागो, देह के धर्म को अपना न माने, इस तरह परिपूर्णरूप से उपासना करते आत्म स्वरूप प्रगट होता है। ग्राह्य-ग्राहक भाव छोड़ देना है। जैसे मूल रूप है वैसा होना है।
(६६) . बो.भा.-१ : पृ.-२०१ _प्रमाद जैसा कोई शत्रु नहीं। पर वह शत्रु है, यह इसे समझ नहीं आती। अरूपी आत्मा को, “मैं - मेरा" करके अशुद्ध करने जैसा नहीं। शुद्ध आतम भावना भावे तो केवलज्ञान हो जाए। सब को बाद करते