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________________ साधना पथ "वीत्यो काळ अनन्त ते, कर्म शुभाशुभ भाव; तेह शुभाशुभ छेदतां, ऊपजे मोक्ष स्वभाव ।।" ९० आ.सि. शुभाशुभ भाव छूटें तो शुद्धभाव आता है । लघुता आएँ तो प्रभुता आती है । लघुता से जीव कृपापात्र बनता है। कृपालुदेव के योग से अंत में अयोगी गुणठाणा प्राप्त होता है। "लघुता में प्रभुता वसे, परम कृपा ने योग; परमकृपालुदेव ने योगे समरुं अयोग ।” ६९ | दिशा - काल से जिसका माप नहीं निकलता, ऐसे अनन्त ज्ञानवाले सिद्धों को नमस्कार। मैं बंधा हुआ हूँ, कैसे छूहूँ ? ऐसा जो विचार करता है, वह इस ग्रन्थ का अधिकारी है। ज्ञानी या अज्ञानी को यह ग्रन्थ योग्य नहीं । ज्ञानी को जरूरत नहीं और अज्ञानी को जिज्ञासा नहीं, अतः पात्रता नहीं । प्रभु की साक्षात् कृपा हो तब जीव को सत्संग या सत्शास्त्र का योग मिलता है। भवरूपी सागर को पार करने के लिए सद्गुरु नाविकरूप है। अनादि काल के भव रोग को मिटाने के लिए सुविचार औषध है। " औषध विचार ध्यान " मैं किस कारण जन्म-मरण करता हूँ ? दुःख सहन करता हूँ? मैं कौन हूँ? इस तरह अपने स्वरूप को जानने का विचार करे तो : " ज्यां प्रगटे सुविचारणा, त्यां प्रगटे निज ज्ञान; ज्ञाने क्षय मोह थई, पामे पद निर्वाण ।। " ४१ आ. सि. संत वृक्ष समान है। संत न हो वहाँ दिन भर रहना नहीं । वृक्ष जैसे फल और छाया देता है, उसी तरह सत्संग, छाया है। सद्गुरु के योग से कषाय शम जाते हैं। मनुष्य भव मिला है, वह मात्र आजीविका के पीछे बीत जाएँ तो ठीक नहीं। कुछ करना है। देह में मेहमान के रूप में आए हैं। दिन पर दिन बीत रहे हैं। आयु जा रही है। किस लिए जन्मे हैं ? यह मानव भव किसके लिए जा रहा है ? यह बहुत विचार करना है । " एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध, तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध | "
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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