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________________ साधना पथ नींद में मन मूढ़ है, विचार नहीं कर सकता। स्वप्न में मोह होता है, जागृति में इष्ट-अनिष्ट रहता है। निद्रा, स्वप्न, जागृत इन तीनों से अलग इसकी अवस्था है। भव किसे करना पड़ता है? मैं कौन हूँ? यह विचारो। सब करके यह करना है। विचार सर्वत्र प्रवेश करता है। इसे कोई रोक नहीं सकता। पर्वत के भी पार जाता है। सद्विचार परमानंद का मूल है। विचार ही आत्मा है। प्रमाद छोड़कर इसका पालन करो, विचार करो। (६४) बो.भा.-१ : पृ.-१९३ इस भव में और पर भव में मुझे सत्संग मिले। सत्संग से विवेक अर्थात् भेदज्ञान होता है। यह आत्मा और यह देह, ऐसा भेद पड़े तो मोक्ष हो। उज्जड़ स्थान भी सन्तों को शहर से अधिक अच्छे लगते हैं। विपद् . संपदरूप लगती है। मोह रूपी ओस के बिंदुओ को उड़ाने में सत्संग पवन जैसा है। चाहे कैसा भी दुःख-कठिनाई आयें तो भी सत्संग मत छोड़ो। सत्संग मिला हो, उसे तीर्थादि करने की कोई जरूरत नहीं। जितेन्द्रिय, संशय रहित, देहाध्यास रहित संत मिले तो फिर तप-तीर्थ का कोई महत्त्व नहीं रहता। संत समागम जिसे मिला है, उसका ध्येय निर्मल होता है। आत्मा उपादेय लगे, यह उसका ध्येय है। शम, विचार, संतोष और सत्संग ये चार मोक्ष के द्वारपाल हैं। संतोष आया तो परम लाभ होता है। सत्संग हो तो उत्तम गति होती है। विचार से ज्ञान और शम से अभंग सुख मिलता है। शम, संसार को तैरने के लिए जहाज समान है। यह आए तो शेष तीनों आ जाते हैं। मन रूपी हाथी को जीत कर इन चारों में से किसी एक को भी प्राप्त करो। इन चारों में उत्तम सत्संग है। सत्संग करे तो सब आ जाता है। सत्संग करना हो तो असत्संग टालना चाहिए। मन मोह रूपी वन है। उसमें वासना रूपी नदी है। उसे शुभाशुभ दो तट हैं। उन से वासना में जीव खींचे जा रहा है। प्रयत्न करे तो इस वासना रूपी नदी को पार कर सकता है। अच्छे विचार आने के बाद अशुभ तट छोड़कर शुभ तट पर जाया जाता है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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