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साधना पथ
(६३) बो.भा.-१ : पृ.-१९१ प्रज्ञा को छैनी जैसा कहा है। जब लकड़ी फाड़े तब पहले अच्छी तरह जगह देखकर बाद में छैनी मारे तो दो भाग हो जाएँ। उसी तरह आत्मा और जड़ के लक्षण अच्छी तरह देखकर बीच में प्रज्ञा अर्थात् विचार रूपी छैनी मारे तो भेदज्ञान हो। साता-असाता सब में मोह परेशान करता है। सद्विचार मोह को दूर करते हैं। जीव असाता में खेद न करे, साता में हर्ष न करे, ऐसा सद्विचार का गुण है। ‘मा रुष मा तुष' करते हुए मुनि को जब विचार जागा तब केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जब विचार करेगा तब ठिकाने पड़ेगा। अविचार दशा, निद्रा जैसी है। अविचार के कारण मन घूमता है। विचार नहीं जगे, तब तक जीव अनित्य वस्तुओं में मोह करता है। रात दिन सावधान रहना है कि अविचार में न चला जाए। अविचार से लम्बे कर्म बँधते है, अतः भटकना पड़ता है। आत्म-विचार छोड़े तो अविचार आए।
दुर्जन, दुःख की कोठी है उसका संग करे तो जीव आफत में पड़ जाएँ। दोष हो जाएँ, उसकी अपेक्षा दोषी (दुर्जन) का संग करना ज्यादा खराब है, वह असत्संग है। जीवन मुक्त का संग, सत्संग है उस से जीव निर्भय होता है। _ विचार से सब पाया जा सकता है। ज्ञानावरणीय आदि जो आवरण हैं, वे विचार से टलते हैं। विचार जागे तो सारा जगत असार लगता है। उससे वीतरागता आती है। निष्काम स्थिति होती है। जीवनमुक्त का मन पूर्ण पद की इच्छा करता है। पूर्ण पद की छाया इसमें दिखती है। वह रागद्वेष नहीं करता। वहाँ पर मन को पूर्ण पद का अवलंबन है। ध्यान में मन पूर्ण पद में रहता है। अतः पूर्ण पद उसका अवलंबन है। उसे रागादि नहीं होता, उस की इच्छा भी नहीं होती। यह जगत चलता-फिरता नहीं दिखता। काष्ठ-तृणवत् सारा जगत लगता है। विषयों की उत्सुकता नहीं। तृष्णा नहीं रही। 'यह अच्छा है, यह खराब है' यह मन में से निकल गया है। मन शांत हो गया है।