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साधना पथ कर्म बंधते हैं, उस से देहधारी बनना पड़ता है, भटकना पड़ता है। "मेरे से नहीं होता, पर यह है तो अच्छा" इतना भाव हुआ तो देर सबेर इस तरफ मोड़ आएगा। बहती गंगा में हाथ धोए तो काम हो गया। सदृष्टि जो धर्म के प्रति हो तो हितकारी है। संस्कार पड़े हों तो देर सबेर उगते हैं। भक्ति के संस्कार ऐसे वैसे नहीं। अच्छी वस्तु अच्छी लगे तो इसे लाभ हो। महा पुण्य का उदय हो तो इसे सत्य धर्म के प्रति रुचि होती है। किसी के हाथ में कुछ रहने वाला नहीं, सब छोड़कर जाना है।
(६२) बो.भा.-१ : पृ.-१८९ वांचन करना हो, तो सद्गुरु को याद करके करना। प्रत्येक काम करते, खाते-पीते, उठते-बैठते सद्गुरु को याद करना। कोई अल्प भी काम करते सत्पुरुष को याद करना। कुछ ईच्छा न रखना। जिसे छूटना है, उसे राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। नए कर्म नहीं बाँधना, पुराने भोगकर चले जाना। ईच्छा न करें तो नए कर्मबंध न हों। उदासीन भाव से भोग डालना। ज्ञान विचार से ज्ञान होता है, आत्मा प्रगट होती है। सत्संग करना है। जैसा संग वैसा रंग लगता है। आतम भावना हो तो मोह क्षय होता है, पुनः मोह नहीं होता।
जिस जीव को निश्चय है कि इतना जीवन आत्म कल्याण में बिताना है, उसे बोध परिणमता है। 'अनंतबार देह के लिये आत्मा का उपयोग किया है। जिस देह का आत्मा के लिये उपयोग होगा उस देहमें आत्मविचार का आविर्भाव होने योग्य जानकर, सर्व देहार्थ की कल्पना छोड़कर, एक मात्र आत्मार्थमें ही उसका उपयोग करना; ऐसा निश्चय मुमुक्षु जीवको अवश्य करना चाहिये।' (श्री.रा.प.-७१९) ऐसा जिसे हो उसे बोध परिणमता है। शब्द काम नहीं करते, आत्मा काम करती है। 'सियार को मुनि ने बोध दिया तो उसने रात्रिभोजन का त्याग किया। वहाँ से शुभभाव से देह त्यागकर प्रीतिंकर सेठ हुआ और मुनि बनकर मोक्ष में गए।' (प्रवेशिका४४) अंदर से आत्मा के भाव बदले तो कल्याण होगा, बाकी तो बड़े बड़े भाषण देनेवाला भी भीतर से रिक्त (खाली) रह जाता है।