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________________ साधना पथ ६३ लोगों ने बिगाड़ डाला है, उसे माने तो कल्याण नहीं होता। भगवान ने जो कहा है उस अनुसार प्रवृत्ति करे तो स्वच्छंद न गिना जाएँ। समझकर करना। मेरे वाप दादा करते आए हैं, वह धर्म वास्तविक है ? उसका यथार्थ विचार करने के बाद करें तो अवश्य कल्याण हो । आत्मविचार कर्तव्यरूप धर्म है। आत्मा जागे तो धर्म हो । क्रिया करने से धर्मात्मा नहीं कहा जाता । यथार्थ फल समझ का मिलता है। धर्म में किसी का अधिकार नहीं। धर्म करे, उसके बाप का है। जन्म-मरण से छूटने के लिए भगवान ने कहा है। भगवान ने संसार से छूटने को कहा है, मुझे छूटना है, ऐसा हो तब मोक्ष होता है। आज्ञा का विचार करना है। रागद्वेष नहीं करो, ऐसा जो कहा वह क्यों कहा? इस तरह विचार करें तो समझ आएँ कि राग-द्वेष से बंध होता है। भगवान ने सत्य ही कहा है पर मेरी बुद्धि में बैठता नहीं। शास्त्र में दो प्रकार के वचन हैं, कई अनुमान से माने जाते हैं और कई आज्ञा से मान्य करने होते हैं। आप्त पुरुष के सभी शास्त्र सत्य हैं। प्रयोजनभूत तत्त्वों की समझ करनी है, दूसरी न हो तो कुछ नहीं; पर इसमें भूल हो तो मोक्ष नहीं होता। 'खलबली करती हुई जो आभ्यंतर वर्गणा है उसका या तो आभ्यंतर ही वेदन कर लेना, या तो उसे स्वच्छ पुट देकर उपशांत कर देना' । ( श्री. रा. हा. नों. 3-26 ) । जगत की वस्तुओं की जिसे स्पृहा नहीं, वह नि:स्पृह है । (५९) बो. भा. - १ : पृ. १६९ मुमुक्षुः- कल मैं आणंद गया तब मेरी सौ की नोट चोरी हो गई। उस के ही संकल्प-विकल्प में बहुत समय बीत गया । न चाहते हुए भी उसी के विचार आते रहे । पूज्य श्री :- बहुत विचार करने की जरूरत है कि जो वस्तु शरीर से भिन्न - अलग है, उसका वियोग होने पर इस जीव को विचार घूमता है। तो जब वेदनीय का उदय होगा तब समभाव कैसे रहेगा? जीव मानता है कि मुझे अन्य की अपेक्षा ममत्वभाव कम है, पर अंदर मूर्छाभाव के मूल
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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