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साधना पथ
का ख्याल न आया। मृत्यु का भय लगता नहीं। जिसे आत्म जागृति हो, ऐसे पुरुष से जागृति आती है। स्वयं स्वच्छंद से करे तो जागृति न हो।
"परम निधान प्रगट मुख आगले, जगत उलंघी हो जाए, जिनेश्वर " जीव को गरज हो तो होता है। आत्मा का विचार करने के लिए आश्रम में रहते हैं। शुरुआत में तो त्याग कर के सम्यग् विचार करने का है। (५७) बो. भा. - १ : पृ. १५६ मुमुक्षु :- ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना क्या है ?
पूज्यश्री :- जिसे आत्मभाव की मुख्यता है, मैं आत्मा हूँ, असंग हूँ, उसे ज्ञान चेतना है। मैं कर्ता हूँ, मैंने किया, यह मेरा है, ऐसे भाव वाले जीवों की कर्म चेतना है। जो जीव एकेन्द्रिय आदि हैं, उन्हें कर्म फल भोगने की मुख्यता है, वे भी कर्म तो बांधते हैं, पर मन से नहीं । अतः कर्म बांधने की विशेषता नहीं, उन जीवों को कर्मफल चेतना है ।
तप, भक्ति, वांचन, विचार करने की आवश्यकता है। वीतराग भाव से संवर होता है । कषाय कम करने से संवर होता है । जितना राग-द्वेष कम उतना बंध कम। वीतरागता बढ़े, उतना उतना बंध मंद होता है। जिसे छूटना हो, उसे किसी पर राग या द्वेष नहीं करना । वीतराग दशा में जितनी कमी हो, उतना बंध अधिक पड़ता है। वीतरागता के साथ जो विचार आएँ वह निर्विकल्प दशा है। धर्मध्यान में वस्तु को समझने के लिए विचार करे तो यह कोई विकल्प दशा नहीं । विचार न हो तो ज्ञान भी नहीं होता । जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ विकल्प है; बिना राग-द्वेष निर्विकल्प दशा है; विकल्पमें राग-द्वेष मौजूद है। बिना राग-द्वेष जब पदार्थ का विचार करे तब विकल्प नहीं है। उपयोग अस्थिर हो उसका नाम विकल्प है। एक ही वस्तु में उपयोग रुके और दूसरी वस्तु में न जाएँ, वह ध्यान है । निमित्त के कारण जिसे राग-द्वेष होते हैं, उसे जो आत्मचिंतन रहे, तो राग-द्वेष कम हो जाते हैं। नीची दशा वाले जीवों को यह उपदेश किया है। दशा बढ़ने के बाद देवलोक, नरकादि का चिन्तन करे तो राग-द्वेष नहीं होता ।