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साधना पथ स्वरूपाचरण न हो तब तक सच्चा वैराग्य नहीं होता। अनन्तानुबंधी जाएँ, तब स्वरूपाचरण करने की शक्ति प्रगट होती है। उसके बिना चारित्र, वह मिथ्याचारित्र है। पाँच इन्द्रियाँ और मन को न जीते, छःकाय की रक्षा न करे, वह १२ प्रकार की अविरति अथवा असंयम है। सद्गुरु का योग हो, बोध सुनने पर भी जीव मानता नहीं कि आत्मा शाश्वत है। भूत के प्रसंग प्रत्यक्ष देखने पर भी, आत्मा मरती नहीं, ऐसा नहीं लगता। जातिस्मरण हो तब जानता है कि यह मेरा पिता था, चाचा था और उस में उल्टा मोह करता है। अंदर से कर्म फिरें तो दशा बदले। दर्शनमोह कम हो, तब उसका ज्ञान सम्यक् होता जाता है।
प्रत्यक्ष देखने पर भी समझता नहीं। नष्ट होते धनादि को देखते हुए भी ‘मेरा' मानता है। मरना है, यह जानते हुए भी मानवभव में जो कुछ करने जैसा है, वह नहीं करता। कुछ आत्महित कर लेना चाहिए, ऐसा ज्ञान नहीं। परभव में जाना है, उसके लिए तो कुछ करता नहीं। पुत्रादि जो यहीं पड़े रहते हैं, उनके लिए पैसा आदि कमाता है। यह सब मोह का उदय है।
. (५६) बो.भा.-१ : पृ.-१४४ आत्मा का स्वरूप तो सहजस्वरूप है। कर्म के कारण विभावरूप हुआ है। जैसे स्फटिक रत्न काली वस्तु पर पड़ा हो तो काला दिखता है, पर उसे उठाकर देखें तो श्वेत दिखता है। ऐसा ही विभाव से रहित आत्मा का स्वरूप है। आत्मा में शुद्धाशुद्ध की कल्पना नहीं है, लेकिन कर्म के योग से यों कहना पड़ता है। आत्मा, आत्मा ही है। जीव अनेकों बार चींटी-मकोड़ा बना, कई बार मानव भी बना, पर आत्मा चींटी-मकोडा या मनुष्य नहीं है।
समकित प्राप्ति की शक्ति सब में हैं। जीव की, मिथ्यात्व के कारण तत्त्व विचार की तरफ वृत्ति जाती नहीं। मिथ्यात्व के कारण अनन्त काल गया है। बहुत बार अवधि (विभंग) ज्ञान आदि भी प्राप्त हुए, पर आत्मा