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साधना पथ रोकने के लिए कुछ नहीं किया। संवर से सुख होता है, इसका इसे पता नहीं। अतः सुखी होने के दूसरे उपाय जीव करता है।
(५५) . बो.भा.-१ : पृ.-१४३ राग-द्वेष का कारण पर्यायदृष्टि है। पर्यायदृष्टि के कारण मूलद्रव्य का ख्याल नहीं। शरीर मैं हूँ, ऐसा मानता है। अपनी पसंद की अवस्था में राग करता है और नापसन्द में द्वेष करता है। बाह्यदृष्टि हो तो बाह्य में राग-द्वेष होता रहता है। सारा संसार राग-द्वेष रूप ही है। जीव को कुछ लेना-देना न हो तो भी व्यर्थ में राग-द्वेष करता रहता है। कल्पना कर कर के सुख-दुःख पैदा करता है। गाय बछड़े पर राग करती है, बछड़ा उसे जरा भी सुखी न करे तो भी उस पर राग करती है। उसी तरह जीव करता है। यह आदत जीव को समझ आने पर कम होती जाती है। मैं आत्मा हूँ, मुझे देह से कुछ लेना-देना नहीं; तो किस लिए राग करुं? स्मरण करने की आदत डालना। हर वक्त मन को देखना कि क्या कर रहा है? जीव को जन्म मरण का त्रास लगना चाहिए। हठ करके स्मरण में चित्त रखना है। यह सरलता से नहीं होता पर प्रबल पुरुषार्थ करने से ही स्मरण में चित्त रहेगा। जीव को अन्य में राग-द्वेष करने की आदत पड़ गई है। पर्यायदृष्टि ही मिथ्यादृष्टि है। "शरीर मैं हूँ" यह भारी भूल है। शरीर पर राग करे तो अविचार है, विचार की कमी है। अविचार, सब अज्ञान का मूल है। "कर विचार तो पाम" जीव विचार करता नहीं। शरीर अलग है, ऐसा इसे लगता नहीं।
निमित्त अनुसार भाव होते हैं। पर पदार्थ राग-द्वेष होने में निमित्त है। चारित्रमोह रहे तब तक राग-द्वेष रहता है। दर्शनमोहनीय जाने के बाद चारित्रमोहनीय रहता है, पर वह शिथिल पड़ जाता है। चारित्रमोहनीय के उदय में राग-द्वेष होता है, ऐसा सम्यक्त्वी जानता है, अतः उसे बढ़ाने में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। राग-द्वेष होने में मूल कारण चारित्रमोह है। बाह्य पदार्थ राग-द्वेष नहीं कराते। महामुनि को बाह्य कारण होते हुए भी रागद्वेष नहीं होता। चारित्रमोह के २५ भेद हैं, १६ कषाय एवं ९ नोकषाय।