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साधना पथ अलग है तथापि मिथ्यात्व के कारण विचार ही नहीं आता, वृत्ति आत्मा में जाती नहीं। मिथ्यात्व मंद हो और सत्संग हो, तब मेरा क्या, वह पता लगे।
मिथ्यादर्शन उल्टी समझ है। जो पदार्थ प्रत्यक्ष अलग दिखता है, स्त्री, पुत्र, चाचा आदि उसे अपना मानता है। शरीर नाशवान है, तथापि सदा रहने वाला हो, ऐसा मानता है। किसी मृतक को देखकर भी समझता नहीं कि मेरा शरीर भी अनित्य है। कर्म बन्ध के कारणों में राग होता है, उसे सुख के कारण मानता है। पैसा कमाने जाय, तो शरीर को दुःख हों, परिश्रम पड़े तो भी उसे सुख मानता है। जीव-अजीव भिन्न न लगे वह अयथार्थ ज्ञान है और वैसी श्रद्धा अयथार्थ दर्शन है।
क्रोध करने का मेरा स्वभाव हो गया है, ऐसा मानता है। कर्म के कारण भाव हो, वह अपना स्वभाव नहीं, विभाव है। ज्ञान-दर्शन आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव को स्वभाव और विभाव को विभाव नहीं मानता। मिथ्यादर्शन सब जगह विघ्नकर्ता है; इससे मुझे कर्मबंध होता है, यों समझ नहीं आती है। दृष्टि बाह्य है, अतः अपना भाव सुधरता है या नहीं, वह जानता नहीं। सभी दुःख का कारण मिथ्यात्व है, कषाय है। स्वयं को क्रोध होता हो, तो स्वयं को दुःखी नहीं मानता; पर इसने मुझे गालियाँ दीं, उससे दुःखी हूँ, ऐसा मानता है। यह भाव करता हूँ, उसका फल क्या आएगा? यह जीव समझता नहीं।
कषाय की तीव्रता हो तो नरक में जाता है। मंद कषायी देवलोक में जाता है। देवलोक में भी व्याकुलता होती है, उसका पता नहीं लगता। जिस भावों से कर्म आते हैं, वह आश्रव तत्त्व की श्रद्धा नहीं। अतः कर्म के कारण मैं दुःखी होता हूँ, यह नहीं मानता। एक बार जो कर्म आया, वह आठ भाग में बँटता है, उसे प्रकृति बंध कहते हैं। कर्म अपनी आँखों से दिखते नहीं, सूक्ष्म हैं, केवली जानते हैं। बंध तत्त्व की श्रद्धा नहीं, वह मिथ्यात्व है। आश्रव न जाने तो संवर का पता नहीं लगता। जीव ने कर्म