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साधना पथ
वर्गणा ग्रहण करके “वह मैं हूँ" ऐसा मानता है, आत्मा और देह दोनों अलग हैं, उन्हें एक मानना वह मिथ्यात्व है। आत्मा में विभाव (क्रोधादिक कर्मजनित भाव) होता है, उसे अपना मानता है, वह भी मिथ्यात्व है। शरीर के विकास के साथ साथ आत्मा के प्रदेश फैलते हैं और शरीर घटे तो संकुचित होते हैं, इस तरह आत्मप्रदेश शरीर - प्रमाण रहते हैं। दो पदार्थ हैं, उनमें भेद नहीं मानना, और शरीर की क्रिया को और आत्मा की क्रिया को एक मानना, वह मिथ्यात्व है। देह में मन - इन्द्रियाँ आदि जो हैं, उसमें “मैं” मानता है। आत्मा का ज्ञान मन और इन्द्रियों के आधार से होता है। जानता है, देखता है, सुनता है, सूंघता है, चखता है, स्पर्श करता है, उसमें आत्मा का उपयोग है, वह भाव है और पुद्गल रचना द्रव्य है । द्रव्य मन आठ पंखुड़ी वाले कमल सम है। भावमन, आत्मा है । उसी तरह आँख की रचना, द्रव्य आँख है और देखने का उपयोग भाव - आँखे है । इसी तरह पाँचो ही इन्द्रियों के बारे में समझना । अपना क्या है ? और पराया कितना है ? इसका विवेक न हो तो वह मिथ्यात्व है। रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द ये पुद्गल के गुण पर्याय हैं। जानना, आत्मा का गुण है। उसका भेद न रहे, तां मिथ्यात्व है।
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जिस जिस कुल में जन्मा, वहाँ 'मैं' मानता है। शरीर के उत्पत्तिनाश को अपना जन्म-मरण मानता है। आत्मा शाश्वत है, वह मानता नहीं । जीव पर्याय बुद्धि से मनुष्य, हाथी, पशु, स्वयं को मानता है, अन्दर आत्मा है, उसका ध्यान नहीं। उपर से शरीर को देखकर माता, पिता, स्त्री आदि मानता है। शरीर के आधार से सब संसार है। आत्मा जो मुख्य वस्तु है, उसका ज्ञान नहीं। ‘मैं जानता हूँ' उस में भी शरीर जो दिखता है, उसे अपना मानता है। अरूपी आत्मा दिखता नहीं, उसका स्वरूप भासित होता नहीं। आत्मा का स्थान शरीर ने ले रखा है। अतः मैं शरीर हूँ, ऐसा हो गया है। मनुष्य पर्याय, वह ही मैं हूँ, ऐसा हो गया है। आत्मा और देह का एक क्षेत्रावगाही संबंध है। दोनों अलग हैं और अलग अलग काम करते हैं। तथापि जीव स्वयं को भूल जाता है । जानने वाला आत्मा तो