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साधना पथ इच्छाओं का नाश किए बिना सुख नहीं मिलता। शरीर के बिना आत्मा रह सकता है। सिद्ध भगवान को शरीर नहीं, आहार नहीं, तो भी रहते है ना? एक परमाणु मात्र ग्रहण करना, सर्व सुख का नाश करना है। जब पर वस्तु की इच्छा होती है, तब सुख चला जाता है। "क्या इच्छत खोवत सबै, है इच्छा दुःख मूल।" बहुत विचार करने की बात है। ज्ञानी की बताई एक बात भी जीव जो ग्रहण करें तो बस।
मिथ्यात्व मंद हो तब वास्तव में धर्म प्रगट हो। इस मिथ्यात्व का नाश करना है। जब तक मिथ्यात्व है, तब तक चेतो। कौन जाने कैसे कर्म उदय में आएँ और कहाँ ले जाएँ?
(३५) बो.भा.१ : पृ.-६४ एक भाई :- क्रोध न हो, इसका क्या उपाय है?
पूज्यश्री :- समझ आने के बाद क्रोध मंद पड़ता है। क्रोध आएँ तब विचार करे कि क्रोध करता हूँ, पर यह तो जहर है, मुझे इस से नुकशान होता है, अतः मुझे नहीं करना। "प्रत्यक्ष कषायादि की तीव्रता हो, फर उसके अनभ्यास से, उसके अपरिचय से, उसे उपशम करने से, उसकी मंदता दिखती है।" यही उपाय है। ज्यों ज्यों दोष दिखे, त्यों त्यों उसे निकाले तो निकल जाएँ।
एक भाई :- भक्ति करें, तब जोर से बोलें या मौन से करें?
पूज्यश्री :- अपना चित्त यदि विक्षेपवाला हो, तो जोर से बोलना। जिस का चित्त थोड़ा अन्य सुनते ही वहाँ जाता है, उसे जोर से भक्ति करना, जिससे उसका चित्त बाहर न जाएँ। हम स्मरण बोलते हैं, तब एक व्यक्ति आगे बोलता है बाकी सब पीछे बोलते है। ऐसा बोलने से चित्त स्थिर रहता है। यदि चित्त विक्षेप रहित हो तो भक्ति मौन से करना अथवा होंठ हिलाए बिना कायोत्सर्ग करे तो जोर से बोलने की अपेक्षा दस गुना लाभ हो।