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साधना पथ
__ "ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहाँ समजवू तेह।" यह स्याद्वाद मार्ग है। अतः समझकर अपनी भूमिका का पता करना चाहिए। चित्त विक्षेपवाला हो और काउसग्ग में खड़े रहकर भक्ति करे तो प्रसन्नचंद्र राजर्षि की तरह लड़ाई करने लग जाएगें। अतः समझकर करना।
(३६) बो.भा.-१ : पृ.-६४ एक भाई:- वैराग्य कैसे हो?
पूज्यश्रीः- विचार से। शरीर का विचार करे कि यह शरीर ऊपर से अच्छा दिखता है, पर अन्दर क्या भरा है? इसका स्वरूप कैसा है? इस तरह यदि विचार करे तो वैराग्य आएँ। वैराग्य की जरूरत है। प्रथम यह कहना, "मैं देहादि स्वरूप नहीं और देह, स्त्री, पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं।" इतना हो तो माना जाए कि "शुद्ध, चैतन्य स्वरूप, अविनाशी, मैं आत्मा हूँ।" कुछ वैराग्य हो तो बोध का परिणमन होवे। ज्ञानी का एक वचन भी ग्रहण हो तो मोक्ष में ले जाए। सत्पुरुष के एक-एक वाक्य में, एक एक शब्द में अनंत आगम रहे हैं। सत्पुरुषों ने एक 'समता' शब्द कहा उससे तो कितने ही मोक्ष में गएँ। ___ कोई एक मुनिराज बैठे थे। वहाँ आकर चिलाती पुत्र ने तलवार दिखा कर कहा, “मुझे मोक्ष बता वरना तेरा सिर उड़ा दूंगा।" मुनिने सोचा कि यह भव्य जीव है, उसे “उपशम, विवेक, संवर" कहा। चिलातीपुत्र वहीं खड़ा रह गया। इन तीन शब्दों की धुन लगाई। ऐसे करते करते वे शब्द उसे समझ में आ गए, विचार करते हुए केवलज्ञान मिला। वैराग्य रखना। संसार के प्रति उदासीनभाव रखना जो पर है वह पर, ऐसा भेद करना।
"अध्यात्मनी जननी ते उदासीनता।" ... चाहे कहीं भी जाएँ,भक्ति, वांचन, विचार जरूर करते रहें। कृपालुदेव 'मुंबई को स्मशान समान देखते थे। लोग मुंबई देखने जाते हैं। जिसे छूटना है, उसे परभाव में उदासीन रहना और जो करने जैसा है वह जरुर करना, भूलना नहीं।