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साधना पथ
समझ की जरूरत है। श्रेणिक राजाने श्रद्धा की, तो भगवान बन गये। क्षायिक सम्यक्दर्शन तो केवली और समकिती को बराबर ही है। श्रद्धा में भेद नहीं पड़ता। शूरत्व चाहिए। मानने की बात है। जगत नहीं तो नहीं ही। पर ऐसा मानना चाहिए। जगत आत्मा का नहीं होता। जीव को दोष होता है, वह देह के निमित्त से होता है। देहभाव छूट जाना चाहिए।
"कायानी विसारी माया, स्वख्ये समाया एवा,
निर्ग्रन्थनो पंथ भव-अंत नो उपाय छ।"
काया को भूल जाना चाहिए। ज्ञानी कहते हैं कि तु काया की ममता छोड़ । काया आत्मा से अलग है। जीव झूठ में खड़ा है। वहाँ से बचना है। “कदम रखनेमें पाप है, देखनेमें जहर है, और सिर पर मौत स्वार है; यह विचार करके आज के दिन में प्रवेश कर।" (पुष्पमाला) वहाँ यह जीव खड़ा है। नाशवंत वस्तुएँ अपनी नहीं। यदि काया का स्वरूप विचारें तो इसे लगे कि आत्मा देह से जुदा है। देह और आत्मा के गुण अलग अलग है। अज्ञान से भुलावा हुआ है। उसे जो टालने हो, तो उसके लिए विचार करना। यदि पूरी तरह विचार करे, तो भूल निकले। जिस देह को यह अपनी मानता है, वह इसकी है ही नहीं । यदि इसकी हो तो मरते समय क्यों यहाँ छोड़ जाता है? इसकी देह हो तो साथ जानी चाहिए। इस के लिए सूक्ष्म विचार की जरूरत है।
"छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तूं कर्म,
नहीं भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म।" ११५ आ.सि.
इस जीवकी भूलकी (दोषोंकी) परंपरा चालू ही है। कल्पना (संकल्पविकल्प) से मुक्त होना है। जड़ और चेतन ये दोनों जैसे हैं, वैसे समझ में
आएँ तो कल्पना छूटे। कोई काला चश्मा पहने तो उसे सारा जगत काला दिखता है। ज्ञानी का चश्मा पहने तो जगत ज्ञानमय दिखें। ज्ञानीने जो कहा वह सच्चा है। वही मुझे करना है। जितना हो, उतना करना। अधिक न हो