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________________ ३२. साधना पथ सर्वोपरि है-आत्मा है, आत्मा नित्य है, आत्मा कर्ता है, आत्मा भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है। छः पद का पत्र रोज विचार करके, उसे दृढ़ करना। 'अनादि स्वप्नदशा के कारण उत्पन्न हुए जीव के अहं-ममत्व भाव की निवृत्ति के लिए ये छः पद की ज्ञानी पुरुषों ने देशना प्रकाशित की है।'(श्री.रा.प.४९३) ____ मुमुक्षुः- कोई पद अथवा पत्र बोलते अभिमान आ जाता हो, तो बोलें या नहीं? . पूज्यश्रीः- जब बोलो तब विचारो कि मैं तो अभी सीखा नहीं। अभिमान करने जैसा अभी मैंने क्या सीखा है? पूर्व में हुए गणधरों ने चौदह पूर्व की रचना की थी। कईयों ने पूर्व पढ़े थे। उस ज्ञान के आगे मेरा ज्ञान क्या है? कुछ भी नहीं। भगवान में कितने गुण हैं ? मेरे में कितने सारे दोष भरे पड़े हैं? मुझे तो अभी बहुत कुछ करना है, सीखना है। इस तरह यदि विचार करें तो अभिमान नहीं हो और पुरुषार्थ भी जागे। जब अभिमान आएँ तब भगवान को याद करो, तो अभिमान न हो। अपने से जो नीचे हैं, उन पर दृष्टि रखें तो अभिमान हो। मुमुक्षुः- “अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हुं य; ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुं य।" इसका क्या आशय? पूज्यश्रीः- “हुं तो दोष अनंत नु" इसका दूसरा रूप ही है। मेरे में बहुत दोष भरे हैं। भगवान में जितने गुण है, मेरे में उतने दोष भरे हैं। मैं आखिरी सीढ़ी पर हूँ। मुझे अभी बहुत पुरुषार्थ करना है। मैं सबसे अधम हूँ। इस तरह अपना अधम होना महसूस हो, तब पुरुषार्थ वर्धमान होता है। (३१) बो.भा.-१ : पृ.-५६ समभाव, बहुत बड़ी वस्तु है। समभाव से कर्मों को वेदे तो झट पार आ जाएँ। कर्मो को वेदे तो जल्दी पूरा हो जाएँ। कर्म की रचना बहुत गहन है। प्रकृति, उदय, उद्दीरणा इस तरह कर्म रचना अनेक प्रकार से है, पर भोगनेवाली एक आत्मा है। :
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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