________________
२८
.
साक्ष
साधना पथ है। गौतमस्वामीजी को भगवान महावीर ने तीन शब्द कहे थे :- उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य। इस पर उन्होंने पूरी द्वादशांगी की रचना की। बोध देनेवाला पुरुष भी सच्चा था, भूमिका भी योग्य थी। योग्यता के लिए उपरोक्त दोहा ३८वां ‘आत्मसिद्धि' में कहा है।
(२७) : बो.भा.-१ : पृ.-४७ . इस काल में अन्याय, अनीति बहुत बढ़ गएँ हैं। जो आर्य क्षेत्र थे, वे भी अनार्य जैसे आचरण वाले बन गएँ हैं। प्रभुश्रीजी ने जब कृपालुदेव के पास मुम्बई में चार्तुमास करने की आज्ञा माँगी, तब कृपालुदेव ने बताया कि यह अनार्य जैसा शहर है, परंतु शास्त्र में कहा है कि चाहे अनार्य देश हो तो भी उसमें सत्पुरुष का योग हो, तो वहाँ जाना उचित है। मेरा आचरण कैसा है? परभव में मेरा क्या होगा? यह कुछ भी वह सोचता नहीं। सिर्फ पैसे के लिए वह धर्म में दृढ़ कैसे रह सके?
सत्संग की आवश्यकता है। अन्य कुछ करने जाएँ तो स्वच्छंद आ जाता है। सत्संग में पूछा जाएँ, सोचा जाएँ, पर स्वच्छंद आने का भय नहीं है। कोई न आए तो भी आप अकेले बैठकर आधा घण्टा भी वांचन करें तो अन्य काम करते हुए भी पढ़ा हुआ याद आता है। मुझे आत्म कल्याण करना ही है, ऐसा जिसे हो, उसे तो सत्संग करना। किसीको आत्म कल्याण का निश्चय न हो और सत्संग करे तो उसे भी आत्म कल्याण करने का विचार हो जाता है। इस काल में सत्संग विशेष बलवान साधन है। अकेले का तो बल चलता नहीं। अशक्त व्यक्ति लकड़ी के सहारे चलता है, वैसे ही सत्संग रूपी लकड़ी रखकर आगे चला जा सकता है। सत्संग सरल मार्ग है। उससे अपने दोष दिखते हैं, फिर निकाले जा सकते हैं। प्रभुश्रीजी जिस दिन नासिक से वापिस आये उसी दिन शाम को उपदेश दिया था उसमें अंत में उन्होंने कहा था कि सत्संग करना चाहिए। सत्संग एक आसान उपाय है। वह प्रथम करना चाहिए। सत्संग से खुद के दोष मालूम पड़ते हैं और बादमें निकलते हैं। इस तरह सत्संग एक सरल उपाय है।