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साधना पथ
"क्या इच्छत खोवत सबे, है इच्छा दुःख मूल;
जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल।" ____जब इच्छा करता है, तब जीव दुःखी ही होता है। इच्छा एक मोक्ष की करना। मोक्ष की इच्छावालों को सत्संग की जरूरत है। सत्संग सबसे बलवान साधन है। यदि जीव अकेला हो तो बल चलता नहीं। कोई कहे कि मैं गुफा में जाउँ, ध्यान करूँ , ऐसा यदि कहता हो तो स्वच्छंद का पोषण है। जिसे निकालना है, उसे पोषे तो कहाँ से बाहर निकले? विचार की जरूरत है। वह विचार कहाँ से आएँ? आत्मसिद्धि में कहा है :
"कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष; - भवे खेद, प्राणीदया, त्यां आत्मार्थ निवास।" ३८ आ.सि.
ऐसी दशा जब आएगी तब सद्गुरु का बोध अच्छा लगेगा और उस बोध से सुविचारणा प्रगट होगी। पूरी ‘आत्मसिद्धि' लिखकर कृपालुदेव ने कहा है:- "कर विचार तो पाम।"
समझ की जरूरत है। समझ आना बहुत कठिन है। उसी के लिए ही सत्संग करने का बारम्बार कहते हैं। जब सत्संग न हो, तब सत्संग की भावना रखकर सत्शास्त्र का वांचन करना। समूह में इस जीव का विशेष बल होता है। सत्संग किये बिना कुछ भी करने जाए तो स्वच्छंद का पोषण होता है। सत्संग में आत्मा के सिवा कोई बात ही नहीं होती। अपने दोष दिखें और फिर उन्हें निकालने का पुरुषार्थ करें, यह सब सत्संग में होता है। प्रथम सत्पुरुष का उपदेश सुनें, फिर मनन करें और फिर भावना करें
और निदिध्यासन करें। सुनता तो बहुत है, पर मनन-निदिध्यासन करें तब काम होवें।
__ जगत में किसी भी पदार्थ की इच्छा करने जैसी नहीं। सर्व दुःख का मूल इच्छा है। अहंकार जाएँ तब से धर्म है। मैं समझता हूँ। अब मुझे जानने योग्य कुछ रहा नहीं, इसका नाम स्वच्छंद है। ज्ञानी पुरुष के एक-एक शब्द में अनंत आगम रहे हैं, समझना बहुत कठिन है। योग्यता की जरूरत