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साधना पथ
(२८) . बो.भा.-१ : पृ.-४९ पर्व के दिनों में जीव को अच्छे भाव आते हैं, वे टिके रहें तो अच्छा है। उस समय विचारें कि इससे भी ज्यादा अच्छे भाव करना है। पुरुषार्थ से हो सकता है। थोड़ा सत्संग कर के एकान्त में जाकर जो सत्संग में सुना-पढ़ा, उसका विचार करने से आगे बढ़ सकते हैं। सुनने का क्रम तो बहुत किया पर विचार का क्रम ही नहीं पाला।
मोह बहुत तूफानी है, उसे मंद करना। कषाय की कुछ उपशांतता करें, मोक्ष सिवा अन्य कुछ इच्छा न रखें, संसार पर वैराग्य आएँ, तो रुचि हो और रुचि होने पर वीर्य स्फुरायमान हो। रुचि जगना बहुत कठिन है। महापुण्य हो तब जगे। जितनी रुचि जगे, उतनी आज्ञा पालन हो। उसी अनुसार लाभ हो। अभी मनुष्यभव की किंमत समझी नहीं, विचार से समझ आएगी। जैसे गाय चारा चरकर फिर छाया में बैठकर उसे खूब चबाती है, वैसे ही सुन कर विचार करने की आवश्यकता है।
कोई किंमती बीज इलायची आदि का बोया हो तो बहुत लाभ होता है। सत्पुरुष के वचन ऐसे ही किंमती है। वे हृदय में उतारें तो बहुत लाभ हो। सत्संग में बहुत कमाई होती है। उसमें जो सुना हो, उसे विचारे। बीस दोहे, यम-नियम, क्षमापना, आत्मसिद्धि, ये तो समझ में आएँ ऐसी सरल भाषा में है। 'भक्तामर' जैसा हो तो समझ में न आए। लेकिन इसे तो चलते फिरते भी कर सकते है। किंतु वेठ उतारने से जीवन में कुछ परिवर्तन न होगा। अच्छे निमित्त की जरूरत है। सद्गुरु की आज्ञा पालो। आज्ञा ही धर्म है।
(२९) बो.भा.-१ : पृ.-४९ मुमुक्षुः- इतना इतना सुनते है, फिर भी विचार क्यों आता नहीं? वापिस संसार में क्यों रमण करते रहते हैं ?
पूज्यश्रीः- विश्वास की कमी है। यदि विश्वास हो तो कृपालुदेव ने कहा है, "अंतर में सुख है, बाहर खोजने से नहीं मिलेगा।" तो अंतर में