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साधना पथ
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'वीस
कभी एकाकार न बनना । असाता में तो मंत्र याद आए तो मंत्र, दोहा' याद आएँ तो वह, पर बोलते रहना। दूसरा कुछ अन्दर आने न देना। मानसिक दुःख या शारीरिक दुःख हो किन्तु उपयोग बदलते आना चाहिए, जिससे दुःख मालूम नहीं होवें ।
बो. भा. - १ : पृ. ३१
(१८) शास्त्रों में ध्यान के अलग अलग प्रकार बताएँ हैं । उनमें शास्त्र आम्नाय अनुसार वर्णन हो, परन्तु मुख्य ध्यान तो सत्पुरुष के वचनों में चित्त रहे, मंत्र में ध्यान रहे या पुस्तक का वाँचन करें, तो एकाग्रता रहे, वह सब धर्मध्यान ही है। अमुक प्रकार के अमुक आसन से ही ध्यान हों, तभी ठीक, ऐसा कुछ नहीं । कषाय पर संसार का सब आधार है। अंतरात्मा कषाय निवारण का ही कार्य किया करती है । चलते-फिरते इसी में मन रहे तो वह ध्यान ही है। अभ्यास की खास जरूरत है। परमकृपालुदेव को कई भवों का अभ्यास था, तभी सहजता से ध्यान में रहते थे।
(१९)
बो. भा. - १ : पृ. ३३ सुख त्याग से मिलता है। त्याग में ही सुख है। इस जीव को ग्रहणबुद्धि में ही सुख लगता है। अतः पहले से विचार करके सुख का मार्ग खोजना। विचार करके निश्चित करना कि सुख क्या है? यथार्थ विचार करने से तो प्रत्यक्ष लगता है कि सुख त्याग में है । इच्छा होती है, यही दुःख है। अतः विवेक से इच्छाओं को हटाना चाहिए ।
एक राजा था। वह शास्त्री के पास शास्त्र सुनने जाता था। शास्त्र में आता था कि शास्त्र सुने वह अवश्य मोक्ष में जाता है। इसे सुननेवाले कई मोक्ष गए हैं। सुनकर राजा आनंदित हुआ। ऐसा करते करते दस वर्ष बीत गएँ । राजाने विचार किया कि मोक्ष क्यों होता नहीं ? उन्हीं दिनों वहाँ एक आचार्य आएँ । राजाने उनसे पूछा:- “महाराज ! मोक्ष क्यों होता नहीं?” आचार्यने कहा, "मोक्षमें जाना भी है या बातें ही करना है ?" " ना महाराज, मोक्ष में तो जाना है। " " तो सुबह उस शास्त्री को लेकर