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साधना पथ
(१६) वो.भा.-१ : पृ.-२९ क्या करने आया है? और क्या कर रहा है? उसका जीव को ख्याल नहीं। सब लोग पैसा कमाते हैं और उससे मौज-शौक करते हैं, वैसे ही देखा-देखी यह जीव भी करता है। वह विचार नहीं करता कि इसमें से क्या साथ आने वाला है? एक पाई भी साथ आने वाली नहीं। और पैसा कमाने में जो पाप किया होगा, वह जीव को भोगना पड़ेगा। जीव ने जहाँ जहाँ सुख की कल्पना की है, वहाँ वास्तविक सुख है ही नहीं, दुःख ही है। खाने से यदि सुख मिलता होता तो ज्यादा खाने वाला ज्यादा सुखी होना चाहिए; पर ज्यादा खाने से उल्टा दुःख ही होता है। आत्मा का सुख इन्द्रियातीत है। आत्मा इन्द्रिय अगोचर है। अर्थात् दिखती नहीं। सद्गुरु शरण में, उनकी आज्ञा में रहने से आत्मा अनुभव में आती है।
(१७) बो.भा.-१ : पृ.-६ साता वेदनीय या असाता वेदनीय हो, तो उससे आत्मा के प्रदेश कोई घटते या बढ़ते नहीं। मात्र उस समय सुख या दुःख लगता है। साता वेदनीय में स्मरण का इतना दृढ़ अभ्यास कर दें कि वेदनीय आए तो स्मरण ही आकर खड़ा रहे। उपयोग बदलते आना चाहिए। यदि ऐसा हो गया, तो फिर वेदनीय में दुःख लगेगा ही नहीं। महात्मा पुरुषों को उपसर्ग आते हैं, तब वे भी वैसा ही करते हैं। अतः दुःख नहीं लगता। उपयोग दूसरी जगह हो तो कुछ लग जाए तो भी पीड़ा नहीं होती। वैसे ही साता वेदनीय हो, तब उपयोग आत्मा में रखने का पुरुषार्थ करना है। सावधानी की जरूरत है। आखिर तो साता और असाता दोनों समान ही हैं।
इस जीव ने कई भवों में अपने को दुःखी किया है। अतः इस भव में देह को प्रधानत्व देने योग्य नहीं। रास्ते में चलते कोई शत्रु मिले तो कोई तकरार न हो, वैसी सावधानी से रास्ता पार करते हैं, पर अंतर में से शत्रुत्व का भाव नहीं जाता; वैसे ही देह ने शत्रु का काम किया है। उसके साथ समझकर मात्र काम चलाना है। अंतर में तो भेद ही रखना। इसमें