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साधना पथ
(१२) बो.भा.-१ : पृ.-२६ __मनोवृत्ति का जय करने के लिए जीव को प्रयत्न करना चाहिए। संकल्प विकल्पों में मन जाएँ तो उसे रोकने का उपाय प्रथम समझाना, पर भाव में जाने से रोकना और स्वभाव में जोड़ना। यदि ऐसा करने से न माने तो भक्ति में जोड़ना। मन में बोलते हुए वृत्ति यदि बाहर जाएँ तो उच्च स्वर से बोलना। तथापि न माने तो उससे रुठ जाना। बाहर जाती वृत्तियाँ जहाँ जाएँ वहाँ जाती देखते रहना, तो धीरज से मन का जय होगा।
(१३) बो.भा.-१ : पृ.-२७ जीव ने जो जो कर्म बाँधे हो, वे भोगने से ही छूटेंगे परन्तु समभाव से, समझकर भोगें तो नये कर्म न बँधे। महापुरुष भावदया के अवतार हैं। देहकी दया का उन्हें लक्ष्य नहीं होता। देह का तो प्रारब्ध अनुसार होता है। ज्ञानी का समागम होने पर जीवको देहभाव फिका लगता है। ज्ञानी के बोध से देह के और आत्मा के धर्म, जीव अलग अलग समझता है। देह नाशवंत है, ऐसा जिसे निर्णय हुआ है, वह जीव आत्मा का ध्यान रखता है। देह साधन है, अतः संभालो, पर देहमय मत बने रहो।
'देखतभूली' होती है, वह भूल है। देखनेवाले को देखने की भावना करनी चाहिए। ज्ञानी की आत्मचेष्टा देखने के लिए, अंतर में उतरकर अपनी वृत्ति स्थिर करे, तो धीरज से दिखे। देखनेवाले को देखने के लिए कषाय की मंदता चाहिए। प्रत्येक में एक आत्मा को देखने का अभ्यास डाले, तो आत्मा दिखता है। दर्पण के सामने जो हो उसीका प्रतिबिंब पड़ता है। वैसे ही आत्मा में देखने और जानने की शक्ति है। अतः उसमें पर वस्तु के प्रतिबिंब पड़ते हैं, वे देखते और जानते रहें, तब तक बंध नहीं होता; परंतु स्वयं को भूलकर जानने-देखनेके विकल्प करें, वह अज्ञान है। इष्ट-अनिष्ट भावों से बंध होता है। ज्ञानी बँधते नहीं, वे अपने स्वभाव में रहते हैं। सुख-दुःख कर्म हैं आते-जाते हैं, उन्हें जानने वाला रहे तो नए बंध नहीं होते। देह से आत्माको भिन्न सोचते रहना चाहिए। “पुद्गल रचना