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साधना पथ पहले के जमाने में बच्चों को पढ़ाने के लिए पट्टी पर रेती बिछाकर एक-दो आदि लिखते थे। उसे बनाते-बनाते पट्टी को जरा सी ठेस लग जाए तो रेती एक हो जाती और सब चित्र साफ हो जाते थे। वैसे ही जगत के काम करते हुए आत्मा में चित्र बनते ही स्मरण-मन्त्र याद करनेरूप ठेस मारना और उसे साफ कर देना। ऐसे बारम्बार स्मरणमंत्र “सहजात्मस्वरूप परमगुरु" याद करते रहना। दर्शनमोहरूपी जगत के जो जो चित्र बनें, उन्हें सत्पुरुष के स्मरणमन्त्र रूपी बोध से मिटाते जाना। ऐसा करते करते आत्मा अपने स्थिर भावमें आएगी। असाता वेदनीय का भारी उदय हो, तब अधिक बल करके जोरसे स्मरण करना और वेदनीय को कहना कि 'तूं तेरा काम कर, मैं अपना काम करता हूँ।' प्रभुश्रीजी वेदनीय के प्रसंग पर ज्यादा बल से बोध देते :-“आत्मा का लक्षण 'जानना, देखना और स्थिर होना है। उसे निरंतर स्मरण में, अनुभव में रखना। फिर भले ही मरण समय की वेदना क्यों न आएँ? परंतु जानूं, देखू, वह मैं हूँ। दूसरा तो जा रहा है। आत्मा को इसमें कुछ नहीं लगता। नहीं लेना, नहीं देना। जो जो दिखता है, वह जाने के लिए है। आया और चला। वज्र का ताला लगाकर कहना कि जो आना हो, आएँ! मृत्यु आएँ, सुख आएँ, दुःख आएँ, चाहे जो आएँ पर वह मेरा धर्म नहीं हैं। मेरा धर्म तो जानना, देखना और स्थिर होना है। बाकी सब पुद्गल, पुद्गल और पुद्गल। चक्कर आएँ, बेहोश हो जाएँ या श्वास चढ़े, ये सब देह से अलग हो कर बैठे बैठे देखने का मझा आता है, पर जागृत, जागृत और जागृत रहना चाहिए। हाय! हाय! अब मर जाऊंगा। हाय! यह कैसे सहन हो? ऐसा कुछ भी मन में आना नहीं चाहिए। आगे बहुत से महापुरुष ऐसे हो गए हैं कि जिन्हें घाणी में डालकर पीला, पर विभाव में उनका चित्त न गया।"
दीनबंधु की महेर (कृपा) नजर से सर्व अच्छा ही होगा। नम्र बनकर रहना। अहंकार तो मार डालता है। ज्ञान, आत्मा की देह है।