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साधना पथ कारमी जी, तिहां जस चित्त न लीन" (चौथी दृष्टि) असंमोह अनुष्ठान करनेवाले महात्मा संसार से विरक्त होने से, आकर्षक होने पर भी एकांत दुःखदायी पुद्गलकी रचना में, उनका चित्त लीन नहीं होता। पुद्गल में आश्चर्य पाने जैसा कुछ नहीं है। आत्मा की अनंत शक्ति में चमत्कार है, उसका निश्चय करे तो जीव को दूसरे पदार्थोंकी महत्ता न लगे।
"स्वभाव में रहना और विभाव से छूटना।" जीव भूल में पड़ा है। अहंकार रहित, लोकसंज्ञा रहित प्रवृत्ति करना। सार समझमें आए तो ज्ञान। ज्ञानी आत्मा है। स्वयं का स्वरूप स्वयं समझ नहीं सकते। ज्ञानी के बोध से विचारे तो शुद्धात्मा का बोध हो। देह एक धर्मशाला है। 'मेरा-मेरा' निकालने से ही छुटकारा होगा। अपनी भूल का पता लगे तो स्वयं ही स्वयंको झटका दें। मान और परिग्रह ने खराब किया है। देह मेरी नहीं, यह सत्य लगे तो अन्य में मोह न हो। संसार नहीं चाहिए, तभी मोक्ष है।
(१४) बो.भा.-१ : पृ.-२८ उपशम, जीव के कल्याण का मुख्य साधन है। परंतु वह उपशम आत्मार्थ के लिए होना चाहिए। आत्मत्व प्राप्त पुरुष के बोध बिना जीव में उपशम आता नहीं। यथार्थ उपशम समझे बिना और उसका आदर किए बिना कोई जीव यथार्थ सुखी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं। अतः उपशम भाव को प्राप्त और आत्मत्व प्राप्त पुरुष से उस उपशम को जानकर, पाकर इस मानवभव को सार्थक कर लेना। यह मनुष्यत्व ही उस भाव को साधने का साधन है। मनुष्य जन्म अपनी सच्ची मूड़ी है। ज्ञानी ने एक आत्मभाव ही करनेको कहा है। आत्मविचार कर्तव्यरूप धर्म है। ज्ञाता (जाननेवाला) मैं हूँ, यह जो दिखता है वह मैं नहीं हूँ, शरीर में नहीं। यह बीज ज्ञान है। आत्माकी सम्भाल रखे तो सुखी हो। ज्ञानी संसारकी बात नहीं करते। आत्मा परमानंदरूप है। समभाव आराधने योग्य है। वह मोक्ष की मिठाई है। ‘इसलिए जीव को सर्व प्रकार के मत-मतांतर से, कुलधर्म से, लोकसंज्ञारूप धर्म से, ओघसंज्ञारूप धर्म से उदासीन होकर एक आत्मविचार