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श्रीमद् वीतराग भगवंतो द्वारा निश्चितार्थ किया हुआ, अचिन्त्य चिंतामणी स्वरूप, परम हितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखों का निःसंशय आत्यन्तिक क्षय करने वाला परम अमृत स्वरूप सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म
जयवंत हो! त्रिकाल जयवंत हो।
साधना पथ
उस श्रीमद् अनंत चतुष्टय स्थित भगवंत और उस जयवंत धर्म का आश्रय सदैव करना चाहिए। जिनका अन्य कुछ सामर्थ्य नहीं, ऐसे अबुध - अशक्त मनुष्य भी उस आश्रय के बलसे परम सुख हेतु, अद्भुत फल को पाएँ हैं, पाते हैं और पाएँगे। अतः निश्चय ओर आश्रय करना चाहिए। अधैर्य से खेद मत करें।
चित्त में देहादि भय का विक्षेप भी नहीं करना चाहिए । देहादि संबंधी जो व्यक्ति हर्ष-विषाद नहीं करते, वे पूर्ण द्वादशांग को संक्षेप में समझे हैं, ऐसा समझना । यही दृष्टि करनी चाहिए।
मैं धर्म नहीं पाया, मैं कैसे धर्म पाऊँगा? इत्यादि खेद न करते वीतराग पुरुषों का धर्म जो देहादि संबंधी से हर्ष-विषाद वृत्ति दूर करके आत्मा असंग - शुद्ध - चैतन्य स्वरूप है, ऐसी वृत्ति का निश्चय और आश्रय ग्रहण करके, उसी वृत्ति का बल रखना। मंद वृत्ति हो जाएँ तो वीतराग पुरुषों की दशा का स्मरण करना। उस अद्भूत चरित्र पर दृष्टि रख कर वृत्ति को अप्रमत्त करना ।
यह सुगम और सर्वोत्कृष्ट उपकारक तथा कल्याण स्वरूप है।
निर्विकल्प |
श्रीमद् राजचंद्र : पत्रांक ८४३.
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