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साधना पथ
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बो.भा.३, पृ.-५०८, पत्रांक-५५०
(मंदाक्रांता) मंत्रे, मंत्र्यो, स्मरण करतो, काळ काहुँ हवे आ, ज्यां त्यां जोवू, पर भणी भूली, बोल भूलुं पराया;
आत्मा माटे जीवन जीवबुं, लक्ष राखी सदा ए, .. पामु साचो जीवन-पलटो, मोक्षमार्गी थवाने।
भावार्थः- परम कृपालुदेव की अनन्त कृपा से जो मुमुक्षु जीव को संत के योग और सद्बोध से संसार जहर समान, राग द्वेष से जलता हुआ और एकदम छोड़ने योग्य तथा स्वप्न में भी प्रिय न लगने वाला स्पष्ट समझ में आ गया है तथा महा पुण्य के उदय से प्रत्यक्ष परमकृपालुदेव ने, समाधि-मरण के कारण रूप मंत्र की आराधना करने को कहा है, उस महा मन्त्र की जिसे प्राप्ति हो गई है; तथा वह मंत्र ही भवसागर पार करने में नाव समान है, ऐसा जान कर जिसने उस ज्ञानीपुरुष की आज्ञारूप महामन्त्र का आधार दृढ़ता पूर्वक ग्रहण किया है, ऐसा भाग्यशाली मुमुक्षु अपनी भावना ऊपर की पँक्तिओं में प्रगट करता है कि हे भगवन ! जब तक मन्त्र मिला न था, तब तक तो यह जीव देह का दास बन कर रहता था, पुद्गल की बाजी में पागल हो कर स्वयं को भूल रहा था, किन्तु अब परम कृपालुदेव की कृपा से छूटने की - मोक्ष की रुचि ऐसी जागी है कि अब तो मृग जिस तरह वीणा के संगीत में भान भूल जाता है, मानो मन्त्रित कर लिया हो, इस तरह स्वयं को मारने के लिए, धनुष्य खींच कर बाण छोडने की तैयारी करने वाले पारधी को नजर से देखते हुए भी मृत्यु का डर भूल कर, संगीत की लहरों को सुना करता है, उसी तरह मैं भी जितना काल अब जीने का शेष होगा; उतना काल तक उस मन्त्र का स्मरण करता रहूँगा। ऐसी भावना यह भाग्यशाली मुमुक्षु करता है।
पहली पंक्ति में कथित, करने में जो जो विघ्न लगते हैं, उन्हें दूर करने के लिए दूसरी पंक्ति में बताया है पाँचो इन्द्रियों द्वारा मन भटकता है। उसमें 'वचन नयन यम नाहीं' में कहे अनुसार आँखें और शब्द, महा विघ्नरूप हैं। जहाँ तहाँ जीव देखा करता है, राग-द्वेष किया करता है तो कदापि मोक्ष न